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प्रेमघन सर्वस्व

वृक्ष की अनेक शाखायें, चाहे वह आकार में सीधी वा टेढ़ी क्यों न हों पर एक ही प्रकार के पत्र-पुष्प से युक्त होने के कारण वृक्ष की संज्ञा में वे अर्न्गत हो जाती हैं। अब देखिये कि ब्रजभाषा वा विहारी अथवा कन्नौजी और बुन्देलखंडी चाहे परस्पर एक दूसरे से कुछ विशेष विभिन्नता दिखलाती, परन्तु विशुद्ध हिन्दी अर्थात हमारे प्रान्त की हिन्दी के सन्मुख वह विभिन्नता बहुत ही न्यून हो जाती है, ठीक जैसे कि एक माता की अनेक पुत्रियाँ जो भिन्न देशों में व्याही गई और सदैव सुसराल में रहने से यद्यपि परस्पर उनकी भाषाओं में बहुत कुछ भेद पड़ गया हो, परन्तु संयोग से वे सब जैसे अपने मयके वा पितृगृह में आकर बिना कष्ट के आपस में मिल प्रेम से बिना किसी परिश्रम के अपने अपने भाव एक दूसरे पर प्रकट करती, और समझ कर प्रसन्न हो अपनी अभिन्नता दिखलाती हों।

इसके अतिरिक्त यह भी स्मरण रहे कि यह सब बातें केवल ग्राम्य भाषा या सामान्य भाषा ही से सम्बन्ध रखती हैं, परन्तु विशेष में सब की भाषा एक ही है, और उनमें कुछ भेद नहीं है, जैसे कि इन सब की नागरी भाषा एक ही है कि जिसमें कहीं बाल बराबर का भी भेद नहीं है।

कार्तिक १९५१ वै॰ ना॰ नी॰