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हमारे देश की भाषा और आकर्षक

और! दस्तावेजों के लिखने लिखाने में भी इससे बड़े बड़े असम्भव कार्य सम्भव कर दिये जाते और चार बार भी सुना देने से विचारे भोले गवहिये और अपढ़ ठग लिये जाते हैं। जिन्दार माहिब भी सुना कर केवल स्वीकार मात्र पंछ लेते और 'हाँ' सुन कर लेखनी से उन पर अज्ञात छुरी चला देते हैं।

निदान अरबी अक्षर और उर्दू भाषा के असंख्य अद्भुत गुणों का पाख्यान न केवल हमारी सामर्थ्य से परे है, वरंच कदाचित् शेष के अतिरिक्त अन्य से भी असम्भव है! फिर उसका इतने दिन पर्यन्त इस समग्र देश में प्रचरित रहना ही बड़े आश्चर्य की बात थी। कारण इसका यही था कि न तो प्रधान प्रधान राज कर्मचारियों ने कुछ इसकी खोज की, और न यहाँ की गूंगी और निर्जीव प्रजा ने जिसको अन्याय सहन करने की बान सी पड़ गई है, इसके लिये यथेष्ट उद्योग किया। कभी कभी किसी किसी सामान्य अनुशासक और राजकर्मचारियों ने इसके दोष देखे, और कुछ दत्तावधान भी हुए, परन्तु प्रचरित प्रणाली के परिवर्तन के उद्भब संकोच और उत्तेजक और सहायकों की न्यूनता ने उसे उभड़ने न दिया। इसी प्रकार कभी कभी देश के प्रधान शुभचिन्तकों ने भी इसके लिये कुछ कुछ उद्योग किया था, जैसे कि हमारे स्वर्गीय मित्र भारतेन्दु जी ने एक बार बहुत कुछ प्रयत्न किया था। इधर हिन्दू समाज ने भी कुछ अनुष्ठान प्रारम्भ किया था। हम लोग भी इसके लिये कुछ न कुछ कार्यवाही करते रहे; परन्तु अत्यन्त खेद से कहना पड़ता है कि यह कार्य कदापि एक दो वा दस पांच जनों के किये नहीं हो सकता यह देश का कार्य है जब तक देश उद्यत न हो, नहीं हो सकता।

देश से यहाँ केवल शिक्षितमंडली मात्र से तात्पर्य है। अब यदि शिक्षित मात्र नहीं तो प्रत्येक खंड और नगर में दस दस पाँच पाँच सज्जन भी इसके अर्थ कटिबद्ध होकर सन्नद्ध हो जाय, तो भी इस महत्कार्य के पूर्ण होने की आशा हो सकती है, किन्तु जब एक भी न हो, तो कहिये किस प्रकार कार्य चले। राज कार्यालयों से उर्दू के हटाने हिन्दी के पैठाने का उद्योग तो अलग रहे विश्वविद्यालय (यूनीवर्सिटी) से भी हिन्दी निकाल दी गई, परन्तु किसी ने जूं तक नहीं किया! फिर ऐसे सन्तोशामृततृप्त प्रजापूरित देश से क्या कहा जाय?

अस्तु जो यह प्राकृतिक नियम है कि अन्धेर बहुत दिन तक नहीं चलती, यही कारण है कि अब प्रादेशिक गवर्नमेंट का ध्यान इधर आकर्षित हुश्रा