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प्रेमघन सर्वस्व

बकबाद क्यो न करे परन्तु इसके लिये वे क्या कुछ लिखे, क्यों कि इससे कदाचित् देश के सच्चे उपकार की आशा है।

क्या न हो! क्योकि कई तो ऐसे ही है कि—कदाचित् उनको अपनी योग्यता दिखाने के लिये उर्दू की आग उगलने के अतिरिक्त और कोई द्वारही नही है, जैसे कि हमारे हिन्दी बंगवासी साहिब है कि जो बिना अरबी के अलफाज मिलाये भूल से भी कोई छोटा समाचार तक नहीं लिखते, बंगाली कर भी आप मौलाना बनने बिना व्याकुल है। अवश्य ही उनका मनमानी पन. मेल खिचड़ी पकाना एवम् उर्द पर उबार खाना, बिचारी उभरती नागरी ही गर्दन मरोड़ रही है। जिन बंगालियों ने प्रचलित बंग भाषा का ग्राम्य भाषा के सग अमख्य उर्दू शब्द निकाले, और सर्वथा सुकोमल संस्कृत के शब्दों ही को सन्निवेशित कर निज भाषा का सौन्दर्य बढ़ाया, आज उन्हीं के सन्तान हिन्दी के पत्र सम्पादन में प्रवृत्त हो प्रचलित प्रणाली का तिरस्कार कर परिव्यक्त परिपाटी के पोषण पर तत्पर हो देशी कौवा मरहठी भाषा बोल रहे हैं तो क्या यह कुछ न्यून खेद का विषय है जिस उर्दू भाषा, अर्थात् अधिकता से अरबी फारसी शब्दा से भरी भापा, को समस्त देश एक प्रकार की विदेशी भाषा मानता है, और कहता है कि इसे यहाँ के सर्व सामान्य जन नही समझ सकते. बगवासी साहिब उसे देश भाषा प्रमाणित किया चाहते है। फिर कहिये इन्हे हिन्दी का सहायक कहे कि शत्रु? और इनके इस कृत्य से हमारी भाषा को हानि पहुँच सकती है, वा लाम

फिर देखिये, रोमन के प्रचार के विरुद्ध बरेली के उर्दू भक्त मुसलमाना ने एक बड़ी सभा करके इसका प्रतिवाद किया, जिसके लिये कोई विशेष सभा स्थापित नही है, परन्तु हिन्दी हितैषिणी न जाने कितनी समाये हैं, परन्त किसी ने अब तक च नहीं की। यह कितने बडे श्राक्षप और आश्चर्य का विषय है दैनिक भारत मित्र लिखता है, कि—"जिस समय गवर्नमेण्ट की ओर से शिक्षा कमीशन नियत हुआ था, उस समय यह निर्णय हुआ या कि पश्चिमोत्तर देश के वह मुसलमान जो गॉवो में निवास करते हैं, और जिनका नौकरी व्यापार नहीं है, वह भी उर्दू अक्षर और उर्दू भाषा को नहीं जानते हैं। पश्चिमोत्तर देश की गवर्नमेण्ट यदि निष्पक्ष होके न्याय दृष्टि से देखे और विचारे तो उसे यह स्वीकार करना पडेगा कि पश्चिमोत्तर देश की समस्त प्रजा की मातृभाषा हिन्दी, और अक्षर देवनागरी हैं, क्योंकि पश्चिमोत्तर देश का कोई ग्राम ऐमा नही है जिनमे दो चार मनुष्य नागरी जानने वाले न हा