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प्रेमघन सर्वस्व

कारण घसीट उर्दू की भाँति मात्रा विहींना हिन्दी ही में लिखे जाते है। सुतराम् कवि गवर्नमेंट हिन्दी अक्षरों का प्रचार, देगी तो केवल दो ही अक्षर और भाषा राजकार्यालयों में रहेंगी, अन्यथा जिस प्रकार अब तक तीन थी, तीन के स्थान पर ढ़ाई का साढ़ेतीन होगी और इसमें प्रजा की दशा उन्नत होने के स्थान पर और भी अवनत होगी। अतः गवर्नमेंट कृपा कर इन्हीं दोनों भाषा और अक्षर अर्थात् अंग्रेजी और हिन्दी का उचित विभाग कर अपने न्यायालयों में प्रचार दे। जहाँ तक हो सके हिन्दी रख कर ऊपर अंग्रेजी भाषा के संग अक्षरों का प्रचार दे, आधा—तीतर और आधा बटेर का व्यवहार सर्वथा अनुचित है। इत्यादि इत्यादि। परन्तु यह जानना चाहिये कि यह तयाँ संभव है कि जब देश के मुख्य अग्रसर और हिन्दीहितैषी बन इसपर बद्ध परिकर हो अपना द्रव्य और समय व्यय कर ऊपर कुछ कष्ट सहन करना स्वीकार करेंगे, और यथार्थ रीति से इसके लिये तत्पर होंगे। निदान अन सच्चे हिन्दी हितैषियों को अपनी मातृभाषा की भक्ति दिखाने का बहत अच्छा अवसर हाथ लगा है जिसे उन्हें कदापि न खोना चाहिये। और यह भी निश्चय रखना चाहिये कि आज पीछे उनको फिर उक्त विषय का अभिमान मी अवश्य हा त्याग देना पड़ेगा।

निदान क्या काशी और क्या लखनऊ आदि की नागरी प्रचारिणी सभात्रों को अब विशेष चेष्टा करनी चाहिये। सामान्य ऐड्स आदिही पर, निर्भर नहीं रहना चाहिये, वरंच इस कार्य के गुरु भार के उठाने का कोई यथेष्ट प्रबन्ध करना चाहिये। क्योंकि हमारी समझ में इसका प्रबन्ध तब तक होना असम्भव है कि जब तक दो चार सुयोग्य वक्ता नियत करके प्रत्येक प्रान्त और खण्डों में न भेजे जाय, कि जो वहाँ के विशेष जनों को एकत्र कर इसके लिये उत्साहित करें, हमारा यह मत नहीं है कि एका एका कोई सार्वजनिक महा सभा कर केवल कोरा कोरा मकवाद ही कर विपक्षियों को उत्तेजित होने का अवसर दे दिया जाय, कि जिसमें विघ्न की आशंका हो और मुख्य कार्य में ढिलाई की जायः वरंच प्रथम प्रार्थना-पत्र ही का प्रबन्ध किया जाय, और बहुसंख्यक हस्ताक्षर करा कर प्रार्थना-पत्र-प्रेषण-समय ही पर प्रकाश्यरूप से सार्वजनिक सभा एकत्रित की जाय।

इसी प्रकार हम उन स्वदेश हितैषियों से भी प्रार्थना करते हैं कि जिन्होने काँग्रेस आदि के अर्थ कई बार विशेष श्रम और अपने अमूल्य समय तथ