पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
 

गुप्त गोष्ठी गाथा


संसार में प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने मित्रों को एक एक गोष्ठी रखता है, चाहे वे भले हो चाहे बुरे, किसी की गोष्ठी कुछ ही काल में विनाश के पेट में पदार्पण कर अपना अस्तित्व नष्ट कर देती पर किसी किसी की तो अमरबेलि के सदृश पल्लवित तथा प्रफुल्लित होती। सौभाग्य वश मेरी अनूठी गुप्त गोष्ठी भी इसी प्रकार की है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपने ढंग का बेजोड़ और अपना सानी न रखने वाला है। वे मेरे तो यहाँ तक मुँहलगे है कि उठते बैठते खाते पीते दो शरीर एक प्राण के सहश हो रहे हैं और अपनी अनूठी सम्मति तथा चरित्र का उदघोष मुझसे बलात कराया चाहते हैं। अतः प्रथम ही उन सब के स्वभाव से हम अपने पाठकों को परिचित कर देना उचित जानते हैं जिसमें उन्हें कुछ विशेष आनन्द अनुभव हो।

वे सब के सब प्रायः मेरे अभिन्न मित्र हैं जो अहर्निश कोई न कोई अवश्य मुझे घेरे रहते कि जिनसे पिंड छुड़ाना भी कभी-कभी कठिन हो जाता है। यद्यपि उनमें दो एक से मुझसे दाँत काटी रोटी और दो शरीर एक प्राण का सम्बन्ध है, परन्तु कोई कोई ऐसे भी हैं जो बिना स्वागत के सदा उपस्थित रहते और जो बैंठ जाते तो उठने का नाम भी भूल जाते। यह कुछ भी विचार नहीं करते कि इसे भी संसार में कभी कुछ काम करता रहता है। बकत यहते प्रायः सर्वाशं मस्तिष्क ही चाट जाते, किन्तु क्या करूँ कि इनसे कुछ ऐसा स्वाभाविक स्नेह है कि कुछ भी करते धरते नहीं बन पाता, वरञ्च सभी कुछ सहना पड़ता है, यह भी नहीं कि उनमें से किसी पर पूर्ण श्रद्धा भी हो जाय वरञ्च कभी कभी तो उनसे बाते करने में कुछ ऐसा अकथनीय आनन्द आना जो अलौकिक ही कहा जा सकता है। इसलिये इसमें कोई भी काटने छाँटने योग्य नहीं लखाते, प्रत्युत अपने भाति के एक से एक बढ़ कर जँचते हैं और किसी किसी काम में कोई कोई ऐसे काट कर जाते कि हम सब के सब केवल उनका मूं ताकते रह जाते हैं।

हम सब इनमें से किसी न किसी के घर पर प्रायः नित्य ही कई जन एकत्रित हो जाते, परन्तु कभी जब सब के सब आ मिलते तब तो कुछ ऐसे प्रसून

६४