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प्रेमघन सर्वस्व

एक कर पत्र अवश्य रहता जिनके उत्तर लिखने में प्रायः नित्य ही घंटों समय व्यतीत हो जाया करता है।

हमारे प्रथम कृपाकर मित्र शिरोमणि महामहोपाध्याय पण्डितवर श्री विज्ञानशेखर शास्त्री विद्यावाचस्पति हैं। अपका वर्ण गौर, शरीर साधारण सूक्ष्म; वेष में केवल एक मुकटा और उपरणा ललाट पर विभूति गले में रुद्राक्ष माला और पैर में खड़ाऊँ मात्र रहता है। संस्कृत विद्या के अशेष शास्त्राध्यापक होने के अतरिक्त आप बड़े ही शान्त और सरल स्वभाव के हैं, बुद्धि आप की अत्यन्त सूक्ष्म और सारमहणी, आचार विचार जिनके साक्षात महर्षियों के भाँति हैं, सन्ध्योगासन, तर्पण, ब्रह्म यज्ञ, अग्निहोत्रा, देवार्चन नित्य नैमित्तिक कृत्य से जो समय आप का बचता वह अनेक पण्डितों की गूढ़ शङ्कायों के समान ही में प्रायः व्यतीत होता जाता है। परन्तु जब उससे भो अवकाश पाते ई तो केवल इसी चिन्ता में निमग्न रहते हैं कि-हाय हमारे धर्म की क्या दशा हो रही है। इसकी अवनति कैसे रुकेगी, उन्नति कैसे होगी जबकि इसके पोषक हमारे भाई मूर्खतान्ध और प्रेमादोन्मक्त अचेत हो इसकी उपेक्षा करते स्वयम् इसके नाश करने पर तत्पर हो रहे हैं। इसके रक्षक क्षत्रिय स्वयम् रक्षा के अयोग्य हो गये हैं, उनके रक्षक हम, और हमारे वह, और हमी दोनों धर्म के संरक्षक हैं। फिर जब हम दोनों की यह दशा है, तब धर्म की उन्नति कहां, और जब तक धर्म की यह दशा है, भारत का कल्याए कैसे हो सकता है। सारांश "हाय धर्म्म! हाय ब्राह्मण! हाय क्षत्री! हाय भारत! हाय संस्कृत! इत्यादि कहकर उच्छवास लिया करते और कभी रात भर इसी शोच में मग्न रहते! ् जो हम लोगों से मिलते तो ऐसी करूण-रसपरित बातें कहनी श्रारम्भ करते कि मला कर छोड़ देते। कभी जब उत्तम शिक्षा और धर्मोपदेश करते तो सब शोच ही हरते हैं, विचित्रता यह है कि जब कभी अत्यन्त शोचमस्त इनके यहाँ चले जाइए तो शान्ति पाइये और हँसते खेलते जाइए तो शोच सागर में डूबते उत्तराते घर आइए। जब कभी वे मेरी कुटीर को पवित्र करते तो पवित्र चौकी लाश्रो कुशासन लायो और संसार का सब काम छोड़ उनकी सेवा में लग जावो, धर्म करो और धर्म की ध्वजा उड़ानो धर्म की दुन्दुभी बजाओ, धर्म का शंख फंको और धर्म की धूम मचाओ, इन ब्राह्मणों को उपेक्षा निद्रा से जनाओ, इन क्षत्रियों को श्रालस्य-शयन-शाला से उठायों, इन वैश्यों को वाणिज्य बतलायो, इन शूद्रों को गुण सिखलाओं तुम सय यह भूल क्या कर रहे हो, हाय हाय तुम नायं सन्तान अपने स्वरूप को