पृष्ठ:प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियां.djvu/१०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

१०१
आत्माराम


उड़कर नहीं जा सकता, और न पिंजड़े ही में आ सकता है, फिर भी वह उस जगह से हिलने का नाम न लेता था। आज उसने दिन-भर कुछ नहीं खाया, रात के भोजन का समय भी निकल गया, पानी की एक बंद भी उसके कंठ में न गयी; लेकिन उसे न भूख थी, न प्यास। तोते के बिना उसे अपना जीवन निस्सार, शुष्क और सूना जान पड़ता था। वह दिन-रात काम करता था, इसलिए कि यह उसकी अतः-प्रेरणा थी, जीवन के और काम इसलिए करता था कि आदत थी। इन कामों में उसे अपनी सजीवता का लेशमात्र भी ज्ञान न होता था। तोता ही वह वस्तु था, जो उसे चेतना को याद दिलाता था। उसका हाथ से जाना जीव का देह त्याग करना था।

महादेव दिन-भर का भूखा-प्यासा, थका माँदा रह-रहकर झपकियाँ ले लेता था; किन्तु एक क्षण में फिर चौंककर आँखें खोल देता, और उस विस्तृत अंधकार में उसकी आवाज सुनायी देती-'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता। आधी रात गुजर गयी थी। सहसा वह कोई आहट पाकर चौंका। देखा, एक दूसरे वृक्ष के नीचे एक धुंधला दीपक जल रहा है, और कई आदमी बैठे हुए आपस में कुछ बातें कर रहे हैं। वे सब चिलम पी रहे थे। तमाखू की महक ने उसे अधीर कर दिया। उच्च स्वर से बोला-'सत गुरुदत्त शिवदत्त दाता', और उन आदमियों की ओर चिलम पीने चला; किन्तु जिस प्रकार बन्दूक की आवाज सुनते ही हिरन भाग जाते हैं उसी प्रकार उसे आते देख वे सब-के-सब उठकर भागे। कोई इधर गया, कोई उधर। महादेव चिल्लाने लगा-‘ठहरो-ठहरो!’ एकाएक उसे ध्यान आ गया ये सब चोर हैं। वह जोर से चिल्ला उठा-'चोर-चोर, पकड़ो-पकड़ो!' चोरों ने पीछे फिरकर भी न देखा।

महादेव दीपक के पास गया तो उसे एक कलसा रखा हुआ मिला।