पृष्ठ:प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियां.djvu/१५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

१५१
लॉटरी


रात तक भागवत् की कथा तन्मय होकर सुनते। विक्रम के बड़े भाई प्रकाश को साधु-महात्माओं पर अधिक विश्वास था। वह मठों और साधुत्रों के अखाड़ों और कुटियों की खाक छानते, और माताजी को तो भोर से आधी रात तक स्नान, पूजा और व्रत के सिवा दूसरा काम ही न था। उस उम्र में भी उन्हें सिगार का शौक था; पर आजकल पूरी तपस्विनी बनी हुई थीं। लोग नाहक लालसा को बुरा कहते हैं। मैं तो समझता हूँ, हममें जो यह भक्ति और निष्ठा और धर्म-प्रेम है, वह केवल हमारी लालसा, हमारी हवस के कारण। हमारा धर्म हमारे स्वार्थ के बल पर टिका हुआ है। हवस मनुष्य के मन और बुद्धि का इतना संस्कार कर सकती है, यह मेरे लिए बिलकुल नया अनुभव था। हम दोनों भी ज्योतिषियों और पंडितों से प्रश्न करके अपने को कभी दुःखी कर लिया करते थे।

ज्यों-ज्यों लॉटरी का दिन समीप आता जाता था, हमारे चित्त की शांति उड़ती जाती थी। हमेशा उसी ओर मन टँगा रहता। मुझे आप-ही-आप अकारण सन्देह होने लगा, कि कहीं विक्रम मुझे हिस्सा देने से इनकार कर दे तो मैं क्या करूँ। साफ इनकार कर जाय कि तुमने टिकट में साझा किया ही नहीं। न कोई तहरीर है, न कोई दूसरा सबूत। सब कुछ विक्रम की नीयत पर है। उसकी नीयत जरा भी डांँवाडोल हुई और मेरा काम तमाम। कहीं फरियाद नहीं कर सकता, मुंँह तक नहीं खोल सकता। अब अगर कुछ कहूँ भी तो कोई लाभ नहीं। अगर उसकी नीयत में फितूर आ गया है, तब तो वह अभी से इनकार कर देगा; अगर नहीं आया है, तो इस सन्देह से उसे मर्मान्तक वेदना होगी। आदमी ऐसा तो नहीं है। मगर भई, दौलत पाकर ईमान सलामत रखना कठिन है! अभी तो रुपये नहीं मिले। इस वक्त ईमानदार बनने में क्या खर्च होता है। परीक्षा का समय तो तब आयेगा, जब दस लाख रुपये हाथ में होंगे। मैंने अपने अन्तःकरण को टटोला-अगर टिकट मेरे नाम का होता और मुझे दस लाख मिल जाते, तो क्या मैं आधे