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प्रेमचन्द की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ


रुपये बिना कान-पूंछ हिलाये विक्रम के हवाले कर देता? कौन कह सकता है; मगर अधिक सम्भव यही था कि मैं होले-हवाले करता, कहता-तुमने 'मुझे पाँच रुपये उधार दिये थे। उसके दस 'ले लो, सौ ले लो, और क्या करोगे; मगर नहीं, मुझसे इतनी बददियानत न होती।

दूसरे दिन हम दोनों अखबार देख रहे थे कि सहसा विक्रम ने कहा-कहीं हमारा टिकट निकल आये, तो मुझे अफसोस होगा, कि नाहक तुमसे साझा किया!

वह सरल भाव से मुसकराया; मगर यह थी उसके आत्मा की झलक जिसे वह विनोद की आड़ में छिपाना चाहता था।

मैने चौंककर कहा-सच! लेकिन इसी तरह मुझे भी तो अफसोस हो सकता है?

'लेकिन टिकट तो मेरे नाम का हैं?

'इससे क्या।'

'अच्छा, मान लो, मैं तुम्हारे साझे से इनकार कर जाऊँ?'

मेरा खून सर्द हो गया। आँखों के सामने अँधेरा छा गया।

'मैं तुम्हें इतना बदनीयत नहीं समझता।'

'मगर है बहुत संभव। पाँच लाख! सोचो! दिमाग चकरा जाता है।

'तो भई, अभी से कुशल है, लिखा-पढ़ी कर लो। यह संशय रहे ही क्यों?

'विक्रम ने हँसकर कहा-तुम बड़े शक्को हो यार! मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। भला, ऐसा कहीं हो सकता है। पाँच लाख क्या, पाँच करोड़ भी हों, तब भी ईश्वर चाहेगा, तो नियत में खलल न आने दूंँगा।

किन्तु मुझे उसके इन आश्वासनों पर मिलकुल विश्वास न आया। मन में एक संशय पैंठ गया।