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प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ


मान-मर्यादा का ध्यान है। सब-की-सब मेरी तरफ कैसा घूर रही थीं, मानों खा जायेगी।

जुलूस शहर की मुख्य सड़कों से गुजरता हुआ चला जा रहा था। दोनों ओर छतों पर, छजों पर, जंगलों पर, वृक्षों पर दर्शकों की दीवारें-सी खड़ी थीं। बीरबलसिह को आज उनके चेहरों पर एक नयी स्फूर्ति, एक नया उत्साह, एक नया गर्व झलकता हुआ मालूम होता था। स्फूर्ति थी वृद्धों के चेहरों पर, उत्साह युवको के और गर्व रमणियों के। यह स्वराज्य के पथ पर चलने का उल्लास था। अब उनकी यात्रा का लक्ष्य अज्ञात न था, पथ-भ्रष्टो की भाँति इधर-उधर भटकना न था, दलितों को भाँति सिर झुकाकर रोना न था। स्वाधीनता का सुनहला शिखर सुदूर आकाश में चमक रहा था। ऐसा जान पड़ता था, लोगों को बीच के नालों और जंगलों की परवा नहीं है, सब उस सुनहले लक्ष्य पर पहुँचने के लिए उत्सुक हो रहे हैं।

ग्यारह बजते-बजते जुलूम नदी के किनारे जा पहुंँचा, जनाजा उतारा गया और लोग शव को गगास्नान कराने के लिए चले। उसके शीतल, शान्त, पीले मस्तक पर लाठी की चोट साफ नजर आ रही थी। रक्त जमकर काला हो गया था। सिर के बड़े-बड़े बाल खून जम जाने से किसी चित्रकार की तूलिका की भाँति चिमट गये थे। कई हजार आदमी इस शहीद के अन्तिम दर्शनों के लिए मण्डल बाँधकर खड़े हो गये। बीरबलसिंह पीछे घोड़े पर सवार खड़े थे। लाठी की चोट उन्हें भी नजर आयी। उनकी आत्मा ने जोर से धिक्कारा। वह शव की ओर न ताक सके। मुँह फेर लिया। जिस मनुष्य के दर्शनों के लिए, जिसके चरणों को रज मस्तक पर लगाने के लिए लाखों आदमो विकल हो रहे हैं, उसका मैने इतना अपमान किया! उनको आत्मा इस समय स्वीकार कर रही थी कि उस निर्दय प्रहार में कर्तव्य के भाव का लेश भी न