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102 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


जरूरी कामों से रुपये बचते हैं, तो गहने भी बन जाते हैं। पेट और तन काटकर, चोरी या बेईमानी करके तो गहने नहीं पहने जाते ! क्या उन्होंने मुझे ऐसी गई-गुजरी समझ लिया !

उसने सोचा, रमा अपने कमरे में होगा, चलकर पूछूं, कौन से गहने चाहते हैं। परिस्थिति की भयंकरता का अनुमान करके क्रोध की जगह उसके मन में भय का संचार हुआ। वह बड़ी तेजी से नीचे उतरी। उसे विश्वास था, वह नीचे बैठे हुए इंतजार कर रहे होंगे। कमरे में आई तो उनका पता न था। साइकिल रक्खी हुई थी, तुरंत दरवाजे से झांका। सड़क पर भी नहीं। कहां चले गए? लड़के दोनों पढ़ने स्कूल गए थे, किसको भेजे कि जाकर उन्हें बुला लाए। उसके हृदय में एक अज्ञात संशय अंकुरित हुआ। फौरन ऊपर गई, गले का हार और हाथ का कंगन उतारकर रूमाल में बांधा, फिर नीचे उतरी, सड़क पर आकर एक तांगा लिया, और कोचवान से बोली-चुंगी कचहरी चलो। वह पछता रही थी कि मैं इतनी देर बैठी क्यों रही। क्यों न गहने उतारकर तुरंत दे दिए। रास्ते में वह दोनों तरफ बड़े ध्यान से देखती जाती थी । क्यों इतनी जल्द इतनी दूर निकल आए? शायद देर हो जाने के कारण वह भी तांगे ही पर गए हैं, नहीं तो अब तक जरूर मिल गए होते। तांगे वाले से बोली-क्यों जी, अभी तुमने किसी बाबूजी को तांगे परे जाते देखा?

तांगे वाले ने कहा-हो माईजी, एक बाबू अभी इधर ही से गए हैं।

जालपा को कुछ ढाढस हुआ, रमा के पहुंचते-पहुंचते वह भी पहुंच जाएगी। कोचवान से बार-बार घोड़ा तेज करने को कहती। जब वह दफ्तर पहुंची, तो ग्यारह बज गए थे। कचहरी में सैकड़ों आदमी इधर-उधर दौड़ रहे थे। किससे पूछे? न जाने वह कहां बैठते हैं।

सहसा एक चपरासी दिखलाई दिया। जालपा ने उसे बुलाकर कहा--सुनो जी, जरा बाबू रमानाथ को तो बुला लाओ।

चपरासी बोला—उन्हीं को बुलाने जा रहा हूं। बड़े बाबू ने भेजा है। आप क्या उनके घर ही से आई हैं।

जालपा–हां, मैं तो घर ही से आ रही हूं। अभी दस मिनट हुए वह घर से चले हैं। चपरासी-यहां तो नहीं आए।

जालपा बड़े असमंजस में पड़ी। वह यहां भी नहीं आए, रास्ते में भी नहीं मिले, तो फिर गए कहां? उसका दिल बांसों उछलने लगा। आंखें भर-भर आने लगीं। वहां बड़े बाबू के सिवा वह और किसी को न जानती थी। उनसे बोलने का अवसर कभी न पड़ा था, पर इस समय उसका संकोच गायब हो गया। भय के सामने मन के और सभी भाव दब जाते हैं। चपरासी से बोली-जरा बड़े बाबू से कह दो नहीं चलो, मैं ही चलती हूं। बड़े बाबू से कुछ बातें करती हैं।

जालपा का ठाट-बाट और रंग-ढंग देखकर चपरासी रोब में आ गया, उल्टे पांव बड़े बाबू के कमरे की ओर चला। जालपा उसके पीछे-पीछे हो ली। बड़े बाबू खबर पाते ही तुरंत बाहर निकल आए।

जालपा ने कदम आगे बढ़ाकर कहा-क्षमा कीजिए, बाबू साहब, आपको कष्ट हुआ। यह पंद्रह-बीस मिनट हुए घर से चले, क्या अभी तक यहां नहीं आए?

रमेश-अच्छा आप मिसेज रमानाथ हैं। अभी तो यहां नहीं आए। मगर दफ्तर के वक्त सैर-सपाटे करने की तो उसकी आदत न थी। जालपा ने चपरासी की ओर ताकते हुए कहा-मैं आपसे कुछ अर्ज करना चाहती हूं।