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108 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


खर्च न हो जाएं, मुझे एक चिंता-सी लगी रहती है, जैसे सिर पर कोई बोझ सवार हो।

जालपा ने कंगन की डिबिया उसे देने के लिए निकाली तो उसका दिल मसोस उठा। उसकी कलाई पर यह कंगन देखकर रमा कितना खुश होता था। आज वह होता तो क्या यह चीज इस तरह जालपा के हाथ से निकल जाती ! फिर कौन जाने कंगन पहनना उसे नसीब भी होगा या नहीं। उसने बहुत जब्त किया, पर आंसू निकल ही आए। | रतन उसके आंसू देखकर बोली-इस वक्त रहने दो बहन, फिर ले लूंगी, जल्दी ही क्या है।

जालपा ने उसकी ओर बक्से को बढ़ाकर कहा-क्यों, क्या मेरे आंसू देखकर? तुम्हारी खातिर से दे रही हूं, नहीं यह मुझे प्राणों से भी प्रिय था। तुम्हारे पास इसे देखूंगी, तो मुझे तस्कीन होती रहेगी। किसी दूसरे को मत देना, इतनी दया करना।

रतन-किसी दूसरे को क्यों देने लगी। इसे तुम्हारी निशानी समझेंगी। आज बहुत दिन के बाद मेरे मन की अभिलाषा पूरी हुई। केवल दुःख इतना ही है, कि बाबूजी अब नहीं हैं। मेरा मन कहता है कि वे जल्दी ही आयंगे। वे मारे शर्म के चले गए हैं, और कोई बात नहीं। वकील साहब को भी यह सुनकर बड़ा दु:ख हुआ। लोग कहते हैं, वकीलों का हृदय कठोर होता है, मगर इनको तो मैं देखती हूं, जरा भी किसी की विपत्ति सुनी और तड़प उठे।

जालपा ने मुस्कराकर कहा-बहन,एक बात पूछूं बुरा तो न मानोगी? वकील साहब से तुम्हारी दिल तो न मिलता होगा।

रतन का विनोद-रंजित, प्रसन्न मुख एक क्षण के लिए मलिन हो उठा। मानो किसी ने उसे उस चिर-स्नेह की याद दिला दी हो, जिसके नाम को वह बहुत पहले से चुकी थी। बोली-मुझे तो कभी यह खयाल भी नहीं आया बहन कि मैं युवती हूं और वे बूढ़े हैं। मेरे हृदय में जितना प्रेम, जितना अनुराग है, वह सब मैंने उनके ऊपर अर्पण कर दिया। अनुराग, यौवन या रूप या धन से नहीं उत्पन्न होता। अनुराग अनुराग से उत्पन्न होता है। मेरे ही कारण वे इस अवस्था में इतना परिश्रम कर रहे हैं, और दूसरा है ही कौन क्या यह छोटी बात है? कल कहीं चलोगी? कहो तो शाम को आऊं?

जालपा-जाऊंगी तो मैं कहीं नहीं, मगर तुम आना जरूर। दो घड़ी दिल बहलेगा। कुछ अच्छा नहीं लगता। मन डाल-डाल दौड़ता-फिरता है। समझ में नहीं आता, मुझसे इतना संकोच क्यों किया? यह भी मेरा ही दोष है। मुझमें जरूर उन्होंने कोई ऐसी बात देखी होगी, जिसके कारण मुझसे परदा करना उन्हें जरूरी मालूम हुआ। मुझे यही दुःख है कि मैं उनका सच्चा स्नेह न पा सकी। जिससे प्रेम होता है, उससे हम कोई भेद नहीं रखते।

रतन उठकर चली तो जालपा ने देखा-कंगन का बक्स मेज पर पड़ा हुआ है। बोली-इसे लेती जाओ बहन, यहां क्यों छोड़े जाती हो।

रतन-ले जाऊंगी, अभी क्या जल्दी पड़ी है। अभी पूरे रुपये भी तो नहीं दिए ! जालपा–नहीं, नहीं; लेती जाओ। मैं न मानूंगी। मगर रतन सीढ़ी से नीचे उतर गई। जालपा हाथ में कंगन लिए खड़ी रही।

थोड़ी देर बाद जालपा ने संदूक से पांच सौ रुपये निकाले और दयानाथ के पास जाकर बोली-यह रुपये लीजिए; नारायणदास के पास भिजवा दीजिए। बाकी रुपये भी मैं जल्द ही दे दूंगी।