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गबन : 109
 


दयानाथ ने झेंपकर कहा-रुपये कहां मिल गए?

जालपा ने निःसंकोच होकर कहा-रतन के हाथ कंगन बेच दिया। दयानाथ उसका मुंह ताकने लगे।

चौबीस

एक महीना गुजर गया। प्रयाग के सबसे अधिक छपने वाले दैनिक पत्र में एक नोटिस निकल रहा है, जिसमें रमानाथ के घर लौट आने की प्रेरणा दी गई है, और उसका पता लगा लेने वाले आदमी को पांच सौ रुपये इनाम देने का वचन दिया गया है, मगर अभी कहीं से कोई खबर नहीं आई। जालपा चिंता और दुःख से धुलती चली जाती है। उसकी दशा देखकर दयानाथ को भी उस पर दया आने लगी है। आखिर एक दिन उन्होंने दीनदयाल को लिखा-आप आकर बहू को कुछ दिनों के लिए ले जाइए। दीनदयाल यह समाचार पाते ही घबड़ाए हुए आए; पर जालपा ने मैके जाने से इंकार कर दिया। | दीनदयाल ने विस्मित होकर कहा-क्या यहां पड़े-पड़े प्राण देने का विचार है?

जालपा ने गंभीर स्वर में कहा-अगर प्राणों को इसी भांति जाना होगा, तो कौन रोक सकता है। मैं अभी नहीं मरने की दादाजी, सच मानिए। अभागिनों के लिए वहां भी जगह नहीं है।

दीनदयाल-आखिर चलने में हरज ही क्या है। शहजादी और बसन्ती दोनों आई हुई हैं। उनके साथ हंस-बोलकर जी बहलता रहेगा।

जालपा-यहां लाला और अम्मांजी को अकेली छोड़कर जाने को मेरा जी नहीं चाहता। जब रोना ही लिखा है, तो रोऊंगी।

दीनदयाल-यह बात क्या हुई, सुनते हैं कुछ कर्ज हो गया था, कोई कहता है, सरकारी रकम खा गए थे।

जालपा-जिसने आपसे यह कहा, उसने सरासर झूठ कहा।

दीनदयाल तो फिर क्यों चले गए? जालपा–यह मैं बिल्कुल नहीं जानती। मुझे बार-बार खुद यही शंका होती है।

दीनदयाल-लाला दयनाथ से तो झगड़ा नहीं हुआ?

जालपा-लालाजी के सामने तो वह सिर तक नहीं उठाते, पान तक नहीं खाते, भला झगड़ा क्या करेंगे। उन्हें घूमने का शौक था। सोचा होगा–यों तो कोई जाने न देगा, चलो भाग चलें।

दीनदयाल–शायद ऐसा ही हो। कुछ लोगों को इधर-उधर भटकने की सनक होती है। तुम्हें यहां जो कुछ तकलीफ हो, मुझसे साफ-साफ कह दो। खरच के लिए कुछ भेज दिया करूं?

जालपा ने गर्व से कहा-मुझे कोई तकलीफ नहीं है, दादाजी ! आपकी दया से किसी चीज की कमी नहीं है।