पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/१११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
गबन : 111
 

ज्योंही चार बजे; सड़क पर लोगों के आने-जाने की आहट मिलने लगी। जालपा ने बेग उठा लिया और गंगा-स्नान करने चली। बेग बहुत भारी था, हाथ में उसे लटकाकर दस कदम भी चलना कठिन हो गया। बार-बार हाथ बदलती थी। यह भय भी लगा हुआ था कि कोई देख न ले। बोझे लेकर चलने का उसे कभी अवसर न पड़ा था। इक्के वाले पुकारते थे; पर वह इधर कान न देती थी। यहां तक कि हाथ बेकाम हो गए, तो उसने बेग को पीठ पुरे रख लिया और कदम बढ़ाकर चलने लगी। लंबा घूंघट निकाल लिया था कि कोई पहचान न सके। | वह घाट के समीप पहुंची, तो प्रकाश हो गया था। सहसा उसने रतन को अपनी मोटर पर आते देखा। उसने चाहा, सिर झुकाकर मुंह छिपा ले; पर रतन ने दूर हो से पहचान लिया, मोटर रोककर बोलीं-कहां जा रही हो बहन, यह पीठ पर बेग कैसा है?

जालपा ने घूंघट हटा लिया और नि:शंक होकर बोली-गंगा-स्नान करने जा रही हूं।

रतन–मैं तो स्नान करके लौट आई, लेकिन चलो, तुम्हारे साथ चलती हूँ। तुम्हें धर पहुंचाकर लौट जाऊंगी। बेग रख दो।

जालपा-नहीं-नहीं, यह भारी नहीं हैं। तुम जाओ, तम्हें देर होगी। मैं चली जाऊंगी।

मगर रतन ने न माना, कार से उतरकर उसके हाथ से बेग ले ही लिया और कार में रखती हुई बोली-क्या भरा है तुमने इसमें, बहुत भारी है। खोलकर देखें?

जालपा- इसमें तुम्हारे देखने लायक कोई चीज नहीं है। बेग में ताला न लगा था। रतन ने खोलकर देखा, तो विस्मित होकर बोली-इन चीजों को कहां लिए जाती हो?

जालपा ने कार पर बैठते हुए कहा-इन्हें गंगा में बहा दूंगी।

रतन में और भी विस्मय में पड़कर कहा-गंगा में कुछ पागल तो नहीं हो गई हो। चलो, घर लौट चल। बेग रखकर फिर आ जाना।

जालपा ने दृढता से कहा-नहीं रतन, मैं इन चीजों को डुबाकर ही जाऊंगी।

रतन–आख़िर क्यों?

जालपा-पहले कार को बढ़ाओ, फिर बताऊं।

रतन-नहीं, पहले बता दो ।

जालपा-नहीं, यह न होगा। पहले कार को बढ़ाओ। रतन ने हारकर कार को बढ़ाया और बोली- अच्छा अब तो बताओगी?

जालपा ने उलाहने के भाव से कहा-इतनी बात तो तुम्हें खुद ही समझ लेनी चाहिए थी। मुझसे क्या पूछती हो। अब वे चीजें मेरे किस काम की हैं। इन्हें देख-देखकर मुझे दुख होता है। जब देखने वाला ही न रहा, तो इन्हें रखकर क्या करूं?

रतन ने एक लंबी सांस खींची और जालपा का हाथ पकड़कर कांपते हुए स्वर में बोली–बाबूजी के साथ तुम यह बहुत बड़ा अन्याय कर रही हो, बहन। वे कितनी उमंग से इन्हें लाए होंगे। तुम्हारे अंगों पर इनकी शोभा देखकर कितना प्रसन्न हुए होंगे। एक-एक चीज उनके प्रेम की एक-एक स्मृति है। उन्हें गंगा में बहाकर तुम उस प्रेम का घोर अनादर कर रही हो।

जालपा विचार में डूब गई, मन में संकल्प-विकल्प होने लगा; किंतु एक ही क्षण में वह फिर संभल गई, बोली-यह बात नहीं है बहन ! जब तक ये चीजें मेरी आंखों से दूर न हों