पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/११५

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गबन : 115
 


दान देने का पुण्य कुछ और ही है। मुनीम मन में प्रसन्न था कि एक ब्राह्मण देवता दिखाई तो दिए । इसलिए जब उसने रमा को जाते देखा, तो बोला-पंडितजी, कहां चले, कंबल तो लेते जाइए । रमा मारे संकोच के गड़ गया। उसके मुंह से केवल इतना ही निकला-मुझे इच्छा नहीं है। यह कहकर वह फिर बढ़ा। मुनीमजी ने समझा, शायद कंबल घटिया देखकर देवताजी चले जा रहे हैं। ऐसे आत्म-सम्मान वाले देवता उसे अपने जीवन में शायद कभी मिले ही न थे। कोई दूसरा ब्राह्मण होतो, दो-चार चिकनी-चुपड़ी बातें करता और अच्छे कंबल मांगता। यह देवता बिना कुछ कहे, निर्व्याज भाव से चले जा रहे हैं, तो अवश्य कोई त्यागी जीव हैं। उसने लपककर रमा का हाथ पकड़ लिया और बोला-आओ तो महाराज, आपके लिए चोखा कंबल रखी है। यह तो कंगालों के लिए है। रमा ने देखा कि बिना मांगे एक चीज मिल रही है, जबरदस्ती गले लगाई जा रही हैं, तो वह दो बार और नहीं नहीं करके मुनीम के साथ अंदर चला गया। मुनीम ने उसे कोठी में ले जाकर तख्त पर बैठाया और एक अच्छा-सा दबीज कंबल भेंट किया। रमा की संतोष- वृत्ति का उस पर इतना प्रभाव पड़ा कि उसने पांच रुपये दक्षिणा भी देना चाहा, किन्तु रमा ने उसे लेने से साफ इंकार कर दिया। जन्म-जन्मांतर की संचित मर्यादा कंबल लेकर ही आहत हो उठी थी। दक्षिणा के लिए हाथ फैलाना उपके लिए असंभव हो गया। मुनीम ने चकित होकर कहा-आप यह भेट न स्वीकार करेंगे, तो सेठजी को बड़ा दु:ख होगा।

रमा ने विरक्त होकर कहा-आपके आग्रह से मैंने कंबल ले लिया; पर दक्षिणा नहीं ले। सकता। मुझे धन की आवश्यकता नहीं। जिस सज्जन के घर टिका हुआ हूं, वह मुझे भोजन देते हैं। और मुझे लेकर क्या करना है?

'सेठजी मानेंगे नहीं।'

'आप मेरी ओर से क्षमा मांग लीजिएगा।'

'आपके त्याग को धन्य है। ऐसे ही ब्राह्मणों से धर्म की मर्यादा बनी हुई है। कुछ देर बैठिए तो, सेठजी आते होंगे। आपके दर्शन पाकर बहुत प्रसन्न होंगे। ब्राह्मण के परम भक्त हैं। और त्रिकाल संध्या-वंदन करते हैं महाराज, तीन बजे रात को गंगा-तट पर पहुंच जाते हैं और वहां से आकर पूजा पर बैठ जाते हैं। दस बजे भागवत का पारायण करते हैं। मध्याह्न को भोजन पाते हैं, तब कोठी में आते हैं। तीन-चार बजे फिर संध्या करो चले जाते हैं। आठ बजे थोड़ी देर के लिए फिर आते हैं। नौ बजे ठाकुरद्वारे में कीर्तन सुनते हैं और फिर संध्या करके भोजन पाते हैं। थोड़ी देर में आते ही होंगे। आप कुछ देर बैठे, तो बड़ा अच्छा हो। आपका स्थान कहां है?'

रमा ने प्रयाग न बताकर काशी बतलाया। इस पर मुनीमजी का आग्रह और बढ़ा; पर रमा को वह शंका हो रही थी कि कहीं सेठजी ने कोई धार्मिक प्रसंग छेड़ दिया, तो सारी कलई खुल जायगी। किसी दूसरे दिन आने का वचन देकर उसने पिंड छुड़ाया।

नौ बजे वह वाचनालय से लौटा, तो डर रहा था कि कहीं देवीदीन ने कंबल देखकर पूछा-कहां से लाए, तो क्या जवाब दूंगा। कोई बहाना कर दूंगा। कह दूंगा, एक पहचान की दुकान से उधार लाया हूँ।

देवीदीन ने कंबल देखते ही पूछा-सेठ करोड़ीमल के यहां पहुंच गए क्या, महाराज?

रमा ने पूछा-कौन सेठ करोड़ीमल?