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120 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


उतरते ही कहीं पुलिस का सिपाही पकड़ ले, तो बस ।

देवीदीन ने गंभीर होकर कहा-सिपाही क्या पकड़ लेगा, दिल्लगी है । मुझसे कहो, मैं प्रयागराज के थाने में ले जाकर खड़ा कर दें। अगर कोई तिरछी आंखों से भी देख ले तो मूछ मुड़ा लें । ऐसी बात भली । सैकड़ों खूरियों को जानता हूं जो यहां कलकत्ते में रहते हैं। पुलिस के अफसरों के साथ दावतें खाते हैं, पुलिस उन्हें जानती है, फिर भी उनका कुछ नहीं कर सकती । रुपये में बड़ा बल है, भैया ।

रमा ने कुछ जवाब न दिया। उसके सामने यह नया प्रश्न आ खड़ा हुआ। जिन बातों को वह अनुभव न होने के कारण महाकष्ट्र-साध्य समझता था, उन्हें इस बूढ़े ने निर्मूल कर दिया, और बूढी शेखीबाजों में नहीं है, वह मुंह से जो कहता है, उसे पूरा कर दिखाने की सामर्थ्य रखता है। उसने सोचा, तो क्या मैं सचमुच देवीदीन के साथ घर चला जाऊं? यहां कुछ रुपये मिल जाते, तो नए सूट बनवा लेता, फिर शान में जाता। वह उस अवसर की कल्पना करने लगा, जब वह नया सूट पहने हुए घर पहुंचेगा। उसे देखते ही गोपी और विश्वम्भर दौड़ेंगे-भैया आए,भैया आए ! दादा निकल आयंगे। अम्मां को पहले विश्वास न आयगा, मगर जब दादा जाकर कहेंगे—हां, आ तो गए, तब वह रोती हुई द्वार की ओर चलेंगी। उसी वक्त मैं पहुंचकर उनके पैरों पर गिर पडूंगा। जालपा वहां न आएगी। वह मान किए बैठी रहेगी। रमा ने मन-ही-मन वह वाक्य भी सोच लिए, जो वह जालपा को मनाने के लिए कहेगा। शायद रुपये की चर्चा ही न आए। इस विषय पर कुछ कहते हुए सभी को संकोच होगा। अपने प्रियजनों से जब कोई अपराध हो जाता है, तो हम उघटकर उसे दुखी नहीं करते। चाहते हैं कि उस बात का उसे ध्यान ही न आए, उसके साथ ऐसा व्यवहार करते हैं कि उसे हमारी ओर से जरा भी भ्रम न हो, वह भूलकर भी यह न समझे कि मेरी अपकीर्ति हो रही है।

देवीदीन ने पूछा- क्या सोच रहे हो? चलोगे न?

रमा ने दबी ज़बान से कहा-तुम्हारी इतनी दया है, तो चलूंगा, मगर पहले तुम्हें मेरे घर जाकर पूरा-पूरा समाचार लाना पड़ेगा। अगर मेरा मन न भरा, तो मैं लौट आऊंगा।

देवीदीन ने दृढ़ता से कहा-मंजूर।

रमा ने संकोच से आंखें नीची करके कहा-एक बात और है?

देवीदीन-क्या बात है? कहो।

'मुझे कुछ कपडे बनवाने पड़ेंगे।'

'बन जायेंगे।'

'मैं घर पहुंचकर तुम्हारे रुपये दिला दूंगा ।'

'और मैं तुम्हारी गुरु-दक्षिणा भी वहीं दे दूंगा।'

'गुरु-दक्षिणा भी मुझी को देनी पड़ेगी। मैंने तुम्हें चार हरफ अंग्रेजी पढ़ा दिए, तुम्हारा इससे कोई उपकार न होगा। तुमने मुझे पाठ पढ़ाए हैं, उन्हें मैंउम्र भर नहीं भूल सकता। मुंह पर बड़ाई करना खुशामद है, लेकिन दादा, माता-पिता के बाद जितना प्रेम मुझे तुमसे है, उतना और किसी से नहीं। तुमने ऐसे गाढ़े समय मेरी बांह पकड़ी, जब मैं बीच धार में बहा जा रहा था। ईश्वर ही जाने, अब तक मेरी क्या गति हुई होती, किस घाट लगा होता ।'

देवीदीन ने चुहल से कहा-और जो कहीं तुम्हारे दादा ने मुझे घर में न घुसने दिया तो?

रमा ने हंसकर कहा-दादा तुम्हें अपना बड़ा भाई समझेंगे, तुम्हारी इतनी खातिर करेंगे