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गबन : 125
 

दूसरा युवक बोला–दिखा क्यों नहीं देते जीं, कौन जाने यही बेचारे हल कर लें, शायद इन्हीं की सूझ लड़ जाए।

इस प्रेरणा में सज्जनता नहीं व्यंग्य था, उसमें यह भाव छिपा था कि हमें दिखाने में कोई उज्र नहीं है, देखकर अपनी आंखों को तृप्त कर लो मगर तुम जैसे उल्लू उसे समझ ही नहीं सकते, हल क्या करेंगे।

जान-पहचान की एक दुकान में जाकर उन्होंने रमा को नक्शा दिखाया। रमा को तुरंत याद आ गया, यह नक्शा पहले भी कहीं देखा है। सोचने लगा, कहां देखा है?

एक युवक ने चुटकी ली-आपने तो हल कर लिया होगा।

दूसरा-अभी नहीं किया तो एक क्षण में किए लेते हैं।

तीसरा-जरा दो-एक चाल बताइए तो?

रमा ने उत्तेजित होकर कहा-यह मैं नहीं कहता कि मैं उसे हल कर ही लूंगा, मगर ऐसा नक्शे मैंने एक बार हल किया है, और संभव है, इसे भी हल कर लें। जरा कागज पेंसिल दीजिए तो नकल कर लें।

युवकों का अविश्वास कुछ कम हुआ। रमा को कागज-पेंसिल मिल गया। एक क्षण में उसने नक्शा नकल कर लिया और युवकों को धन्यवाद देकर चला। एकाएक उसने फिरकर पूछा-जवाब किसके पास भेजना होगा?

एक युवक ने कहा-'प्रजा-मित्र' के संपादक के पास।

रमा ने घर पहुंचकर उस नक्शो पर दिमाग लगाना शुरू किया, लेकिन मुहरों की चालें सोचने की जगह वह यही सोच रहा था कि यह नक्शा कहां देखा। शायद याद आते ही उसे नक्शे का हल भी सूझ जायगा। अन्य प्राणियों की तरह मस्तिष्क भी कार्य में तत्पर न होकर बहाने खोजता है। कोई आधार मिल जाने से वह मानो छुट्टी पी जाता है। रमा आधी रात तक नक्शा सामने खोले बैठा रहा। शतरंज की जो बड़ी-बड़ी मार्क की बाजियां खेली थीं, उन सबका नक्शा उसे याद था, पर यह नक्शा कहां देखा।

सहसा उसकी आंखों के सामने बिजली-सी कौंध गई। खोई हुई स्मृति मिल गई। अहा ! राजा साहब ने यह नक्शा दिया था। हां, ठीक है। लगातार तीन दिन दिमाग लड़ाने के बाद इसे उसने हल किया था। नक्शे को नकल भी कर लाया था। फिर तो उसे एक-एक चाल याद आ गई। एक क्षण में नक्शा हल हो गया | उसने उल्लास के नशे में जमीन पर दो-तीन कुलांचे लगाईं, मूछों पर ताव दिया, आईने में मुंह देखा और चारपाई पर लेट गया। इस तरह अगर महीने में एक नक्शा मिलता जाए, तो क्या पूछना। देवीदीन अभी आग सुलग रहा था कि रमा प्रसन्न मुख आकर बोला-दादी, जानते हो 'प्रजा-मित्र' अखबार का दफ्तर कहां है?

देवीदीन-जानता क्यों नहीं हैं। यहां कौन अखबार है, जिसका पता मुझे न मालूम हो। 'प्रजा-मित्र' का संपादक एक रंगीला युवक है, जो हरदम मुंह में पान भरे रहता है। मिलने जाओ, तो आंखों से बातें करता है, मगर है हिम्मत का धनी। दो बेर जेहल हो आया है।

रमा-आज जरा वहां तक जाओगे?

देवीदीन ने कातर भाव से कहा-मझे भेजकर क्या करोगे? मैं न जा सकूंगा। 'क्या बहुत दूर है?'