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126 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


'नहीं, दूर नहीं है।

'फिर क्या बात है?'

देवीदीन ने अपराधियों के भाव से कहा-बात कुछ नहीं है, बुढ़िया बिगड़ती है। उसे बचन दे चुका हूं कि सुदेसी-बिदेसी के झगड़े में न पडूंग, न किसी अखबार के दफ्तर में जाऊंगा। उसका दियो खाता हूं, तो उसका हुकुम भी तो बजाना पड़ेगा।

रमा ने मुस्कराकर कहा-दादी, तुम तो दिल्लगी करते हो। मेरा एक बड़ा जरूरी काम है। उसने शतरंज की एक नक्शा छापा था, जिस पर पचास रुपया ईनाम है। मैंने वह नक्शा हल कर दिया है। आज छप जाय, तो मुझे यह इनाम मिल जाय। अखबारों के दफ्तर में अक्सर खुफिया पुलिस के आदमी आते-जाते रहते हैं। यही भय है। नहीं, मैं खुद चला जाती; लेकिन तुम नहीं जा रहे हो तो लाचार मुझे ही जाना पड़ेगा। बड़ी मेहनत से यह नक्शा हल किया है। सारी रात जागता रहा हूँ।

देवीदीन ने चिंतित स्वर में कही–तुम्हारा वहां जाना ठीक नहीं।

रमा ने हैरान होकर पूछा तो फिर? क्या डाक से भेज दूं?

देवीदीन ने एक क्षण सोचकर कहा-नहीं, डाक से क्या भेजोगे। सादा लिफाफा इधर-उधर हो जाय, तो तुम्हारी मेहनत अकारथ जाय। रजिस्ट्री कराओ, तो कहीं परसों पहुंचेगी। कल इतवार है। किसी और ने जवाब भेज दिया, तो इनाम वह मार ले जायगा। यह भी तो हो सकता है कि अखबार वाले धांधली कर बैठें और तुम्हारा जवाब अपने नाम से छापकर रुपया हजम कर लें।

रमा ने दुबिधे में पड़कर कहा-मैं ही चला जाऊंगा।

'तुम्हें मैं न जाने दूंगा। कहीं फंस जाओ तो बस ।'

'फसंना तो एक दिन है ही। कब तक छिपा रहूंगा?'

'तो भरने के पहले ही क्यों रोना-पीटना हो। जब फंसोगे, तब देखी जाएगी। लाओ, मैं चला जाऊं। बुढिया से कोई बहाना कर दूंगा। अभी भेंट भी हो जाएगी। दफ्तर ही में रहते भी हैं। फिर घूमने-घामने चल देंगे, तो दस बजे से पहले न लौटेंगे।'

रमा ने डरते-डरते कहा-तो दस बजे बाद जाना, क्या हरज है।

देवीदीन ने खड़े होकर कहा-तब तक कोई दूसरा काम आ गया, तो आज रह जाएगा। घंटे-भर में लौट आता हूं। अभी बुढ़िया देर में आएगी।

यह कहते हुए देवीदीन ने अपना काला कंबल ओढ़ा, रमा से लिफाफा लिया और चले दिया।

जग्गो साग-भाजी और फल लेने मंडी गई हुई थी। आध घंटे में सिर पर एक टोकरी रक्खे और एक बड़ा-सा एक मजूर के सिर पर रखवाए आई। पसीने से तर थी। आते ही बोलीं-कहां गए? जरा बोझा तो उतारो, गरदन टूट गई।

रमा ने आगे बढ़कर टोकरी उतरवा ली। इतनी भारी थी कि संभाले न संभलती थी।

जग्गो ने पूछा-वह कहां गए हैं?

रमा ने बहाना किया—मुझे तो नहीं मालूम, अभी इसी तरफ चले गए हैं।

बुढिया ने मजूर के सिर का टोकत उतरवाया और जमीन पर बैठकर एक टूटी-सी पखिया झलती हुई बोली-चरस की चाट लगी होगी और क्या, मैं मर-मर कमाऊं और यह