पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/१२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
गबन : 129
 

देवीदीन ने एक लिफाफा रमानाथ को देकर कहा-यह रुपये हैं भैया, गिन लो। देख,यह रुपये वसूल करने गया था। जी न मानता हो, तो अधिक ले ले।

बुढिया ने आंखें फाड़कर कहा- अच्छा ! तो तुम अपने साथ इस बेचारे को भी डुबाना चाहते हो। तुम्हारे रुपये में आग लगा दूंगी। तुम रुपये मत लेना, भैया । जान से हाथ धोओगे। अब सेतमेंत आदमी नहीं मिलते, तो सब लालच दिखाकर लोगों को फंसाते हैं। बाजार में पहरा दिलावेंगे, अदालत में गवाही करावेंगे। फेंक दो उसके रुपये; जितने रुपये चाहो; मुझसे ले जाओ।

जब रमानाथ ने सारा वृत्तांत कहा, तो बुढ़िया का चित्त शांत हुआ। तनी हुई भवें ढीली पड़ गई, कठोर मुद्रा नर्म हो गई। मेघ-पट को हटाकर नीला आकाश हंस पड़ा। विनोद करके बोली-इसमें से मेरे लिए क्या लाओगे, बेटा?

रमा ने लिफाफा उसके सामने रखकर कहा-तुम्हारे तो सभी हैं, अम्मां । मैं रुपये लेकर क्या करूंगा?

'घर क्यों नहीं भेज देते। इतने दिन आए हो गए, कुछ भेजा नहीं।'

'मेरा घर यही है, अम्मां ! कोई दसरा घर नहीं है।'

बुढ़िया का भातृत्व वंचित हृदय गद्गद हो उठा। इस मातृ-भक्ति के लिए कितने दिनों से उसकी आत्मा तड़प रही थी। इस कृपण हृदय में जितना प्रेम सचित हो रहा था, वह सब माता के स्तन में एकत्र होने वाले दूध की भाति बाहर निकलने के लिए आतुर हो गया है ।

उसने नोटों को गिनकर कहा-पचास हैं, बेटा ! पचास मुझसे और ले लो। चाय का पतीला रखा हुआ है। चाय की दुकान खोल दो। यहीं एक तरफ चार-पांच मोढ़े और मेज रख लेना। दो-दो घंटे सांझ-सवेरे बैठ जाओगे तो गुजर भर को मिल जायगा। हमारे जितने गाहक आवेंगे, उनमें से कितने ही चाय भी पी लेंगे।

देवीदीन बोला—तब चरस के पैसे मैं इस दुकान से लिया करूंगा ।

बुढिया ने विहसत और पुलकित नेत्रों से देखकर कहा-कौड़ी-कौड़ी का हिसाब लूंगी। इस फेर में न रहना।

रमा अपने कमरे में गया, तो उसका मन बहुत प्रसन्न था। आज उसे कुछ वही आनंद मिल रहा था, जो अपने घर भी कभी न मिला था। घर पर जो स्नेह मिलता था, वह उसे मिलना ही चाहिए था। यहां जो स्नेह मिला, वह मानो आकाश से टपका था।

उसने स्नान किया, माथे पर तिलक लगाया और पूजा का स्वांग भरने बैठा कि बुढ़िया आकर बोली-बेटा, तुम्हें रसोई बनाने में बड़ी तकलीफ होती है। मैंने एक ब्राह्मनी ठीक कर दी है। बेचारी बड़ी गरीब है। तुम्हारा भोजन बना दिया करेगी। उसके हाथ का तो तुम खा लोगे? धरम-करम से रहती है बेटा, ऐसी बात नहीं है। मुझसे रुपये पैसे उधार ले जाती है। इसी से राजी हो गई है।

उन वृद्ध आंखों से प्रगाढ़, अखंड मातृत्व झलक रहीं था, कितना विशुद्ध, कितना पवित्र | ऊंच-नीच और जाति-मर्यादा का विचार आप ही आप मिट गया। बोला- जब तुम मेरी माता हो गई तो फिर काहे का छूत-विचार ! मैं तुम्हारे ही हाथ का खाऊंगा।

बुढ़िया ने जीभ दांतों से दबाकर कहा-अरे नहीं बेटा | मैं तुम्हारी धरम न लूंगी, कहां तुम ब्राह्मन और कहां हम खटिक। ऐसा कहीं हुआ है।