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130 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


'मैं तो तुम्हारी रसोई में खाऊंगा। जब मां-बाप खटिक हैं, तो बेटा भी खटिक है। जिसकी आत्मा बड़ी हो वही ब्राह्मण है।'

'और जो तुम्हारे घरवाले सुनें तो क्या कहें!'

'मुझे किसी के कहने-सुनने की चिंता नहीं है, अम्मां ! आदमी पाप से नीच होता है,खाने-पीने से नीच नहीं होता। प्रेम से जो भोजन मिलता है, वह पवित्र होता है। उसे तो देवताभी खाते हैं।'

बुढ़िया के हदय में भी जाति-गौरव का भाव उदय हुआ। बोली-बेटा, खटिक कोई नीच जात नहीं है। हम लोग बराम्हन के हाथ का भी नहीं खाते। कहार का पानी तक नहीं पीते। मांस-मछरी हाथ से नहीं छूते, कोई-कोई सराब पीते हैं, मुदा लुक-छिपकर। इसने किसी को नहीं छोडा, बेटा ! बड़े-बड़े तिलकधारी गटागट पीते हैं। लेकिन मेरी रोटियां तुम्हें अच्छी नहीं लगेंगी?

रमा ने मुस्कराकर कहा-प्रेम की रोटियों में अमृत रहता है, अम्मा चाहे गेहूं की हों यो बाजरे की।

बुढिया यहां से चली तो मानो अंचल में आनंद की निधि भरे हो।

अट्ठाईस

जब से रमा चला गया था, रतन को जालपा के विषय में चिंता हो गई थी। वह किसी बहाने से उसकी मदद करते रहना चाहती थी। इसके साथ ही यह भी चाहती थी कि जालपा किस तरह तोडने न पाए। अगर कुछ रुपया खर्च करके भी रमा का पता चल सकता, तो वह सहर्ष खर्च कर देती, और जालपा को वह रोती हुई आंखें देखकर उसका हृदय मसोस उठता था। वह उसे प्रसन्न-मुख देखना चाहती थी। अपने अंधेरे, रोने घर से ऊबकर वह जालपा के घर चली जाया करती थी। वहां घड़ी-भर हंस-बोल लेने से उसका चित्त प्रसन्न हो जाता था। अब वहां भी वही नहसत छा गई। यहां आकर उसे अनुभव होता था कि मैं भी संसार में हैं, उस संसार में जहां जीवन है, लालसा है, प्रेम है, विनोद है। उसका अपना जीवन व्रत की वेदी पर अर्पित हो गया था। वह तन-मन से उस व्रत का पालन करती थी, पर शिवलिंग के ऊपर रखे हुए घट में क्या वह प्रवाह है, तरंग है, नाद है, जो सरिता में है? वह शिव के मस्तक को शीतल करती रहे, यही उसका काम है, लेकिन क्या उसमें सरिता के प्रवाह और तरंग और नाद का लोप नहीं हो गया।

इसमें संदेह नहीं कि नगर के प्रतिष्ठित और संपन्न घरों से रतन का परिचय था, लेकिन जहां प्रतिष्ठा थी, वहां तकल्लुफ था, दिखावा था, ईर्ष्या थी, निंदा थी। क्लब के संसर्ग से भी उसे अरुचि हो गई थी। वहां विनोद अवश्य था, क्रीड़ा अवश्य थी; किंतु पुरुषों के आतुर नेत्र भी थे, विकल हृदय भी, उन्मत्त शब्द भी। जाला के घर अगर यह शान न थे तो वह दिखावा भी न था, वह ईष्र्या भी न थी। रमा जवान था, रूपवान था, चाहे रसिक भी हो;पर रतन को अभी तक इसके विषय में संदेह करने का कोई अवसर न मिला था, और जालपा