पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/१३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
गबन : 131
 


जैसी सुंदरी के रहते हुए उसकी संभावना भी न थी। जीवन के बाजार में और सभी दुकानदारों की कुटिलता और जट्टूपन से तंग आकर उसने इस छोटी-सी दुकान का आश्रय लिया था; किंतु यह दुकान भी टूट गई। अब वह जीवन की सामग्रियां कहां बेसाहेगी, सच्चा माल कहां पावेगी?

एक दिन वह ग्रामोफोन लाई और शाम तक बजाती रही। दूसरे दिन ताजे मेवों की एक कटोरी लाकर रख गई। जब आती तो कोई सौगात लिए आती। अब तक वह जागेश्वरी से बहुत कम मिलती थी; पर अब बहुधा उसके पास आ बैठती और इधर-उधर की बातें करती। कभी-कभी उसके सिर में तेल डालती और बाल गूथती। गोपी और विश्वम्भर से भी अब स्नेह हो। गया। कभी-कभी दोनों को मोटर पर घुमाने ले जाती। स्कूल से आते ही दोनों उसके बंगले पर पहुंच जाते और कई लड़कों के साथ वहां खेलते। उनके रोने-चिल्लाने और झगड़ने में रतन को हार्दिक आनंद प्राप्त होता था। वकील साहब को भी अब रमा के घरवालों से कुछ आत्मीयता हो गई थी। बार-बार पूछते रहते थे-रमा बाबू का कोई ख़त आयी? कुछ पता लगा? उन लोगों को कोई तकलीफ तो नहीं है।

एक दिन रतन आई, तो चेहरा उतरा हुआ था। आंखें भारी हो रही थीं। जालपा ने पूछा-आज जी अच्छा नहीं है क्या?

रतन ने कुंठित स्वर में कहा-जी तो अच्छा हैं; पर रात-भर जागना पड़ा। रात से उन्हे बड़ा कष्ट है। जाड़ों में उनको दमे का दौरा हो जाता है। बेचा जड़ भर एमलशन और सनाटोजन और न जाने कौन-कौन से रस खाते रहते हैं, पर यह रोग गला नहीं छोड़ता। कलकत्ते में एक नामी वैद्य हैं। अबकी उन्हीं से इलाज कराने का इरादा है। कल चली जाऊंगी। मुझे ले तो नहीं जाना चाहते, कहते हैं, वहां बहुत कष्ट होगा, लेकिन मेरा जी नहीं मानता। कोई बोलने वाला तो होना चाहिए। वहां दो बार हो आई हूँ, और जब-जब गई हूं, बीमार हो गई हूं। मुझे वहां जरा भी अच्छा नहीं लगता; लेकिन अपने आराम को देखें या उनकी बीमारी को देखें। बहन कभी-कभी ऐसा जो ऊब जाता है कि थोड़ी-सी सखिया खाकर सो रहूं। विधाता से इतना भी नहीं देखा जाता। अगर कोई मेरा सर्वस्व लेकर भी इन्हें अच्छा कर दें, कि इस बीमारी की जड़ टूट जावे, तो मैं खुशी से दे दूंगी।

जालपा ने सशंक होकर कहा-यहां किसी वैद्य को नहीं बुलाया?

'यहां के वैद्यों को देख चुकी हैं, 'बहन । वैद्य-डॉक्टर सबको देख चुकी ।'

'तो कड़े तक आओगी?'

‘कुछ ठीक नहीं। उनकी बीमारी पर है। एक सप्ताह में आ जाऊ महीने-दो महीने लग जायं, क्या ठीक है, मगर जब तक बीमारी की जड़े न टूट जायगी, न आऊगी।'

विधि अंतरिक्ष में बैठी हंस रही थी। जालपा मन में मुस्कराई। जिस बीमारी की जड़ जवानी में न टूटी, बुढ़ापे में क्या टूटेगी, लेकिन इस सदिच्छा से सहानुभूति न ग्याना असंभव था। बोली-ईश्वर चाहेंगे, तो वह वहां से जल्द अच्छे होकर लौटेंगे, बहन।

'तुम भी चलतीं तो बड़ा आनंद आता।'

जालपा ने करुण भाव से कहा-क्या चलूं बहन, जाने भी पाऊं। यहां दिन-भर यह आशा लगी रहती है कि कोई खबर मिलेगी। वहां मेरा जी और घबड़ाया करेगा।

‘मेरा दिल तो कहता है कि बाबूजी कलकत्ते में हैं।'