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132 : प्रेमचंद रचनावली-5
 

‘तो जरा इधर-उधर खोजना। अगर कहीं पता मिले तो मुझे तुरंत खबर देना।'

'यह तुम्हारे कहने की बात नहीं है, जालपा।'

'यह मुझे मालूम है। सत तो बराबर भेजती रहोगी?'

‘हां अवश्य, रोज नहीं तो अंतरे दिन जरूर लिखा करूंगी; मगर तुम भी जवाब देना।'

जालपा पान बनाने लगी। रतन उसके मुंह की ओर अपेक्षा के भाव से ताकती रही, मानो कुछ कहना चाहती है और संकोचवश नहीं कह सकती। जालपा ने पान देते समय उसके मन का भाव ताड़कर कहा-क्या है बहने, क्या कह रही हो?

रतन-कुछ नहीं, मेरे पास कुछ रुपये हैं, तुम रख लो। मेरे पास रहेंगे, तो खर्च हो जायेंगे।

जालपा ने मुस्कराकर आपत्ति की-और जो मुझसे खर्च हो जाये?

रतन ने प्रफुल्ल मन से कहा-तुम्हारे ही तो हैं बहन, किसी गैर के तो नहीं हैं।

जालपा विचारों में डूबी हुई जमीन की तरफ ताकती रही। कुछ जवाब न दिया। रतन ने शिकवे के अंदाज से कहा-तुमने कुछ जवाब नहीं दिया बहन, मेरी समझ में नहीं आता, तुम मुझसे खिंची क्यों रहती हो। मैं चाहती हूं, हममें और तुममें जरा भी अंतर न रहे लेकिन तुम मुझसे दूर भागती हो। अगर मान लो मेरे सौ-पचास रुपये तुम्हीं से खर्च हो गए, तो क्या हुआ। बहनों में तो ऐसा कौडी-कौड़ी का हिसाब नहीं होता।

जालपा ने गंभीर होकर कहा-कुछ कहूं, बुरा तो न मानोगी?

'बुरा मानने की बात होगी तो जरूर बुरा मानूंगी।'

'मैं तुम्हारा दिल दुखाने के लिए नहीं कहती। संभव है, तुम्हें बुरी लगे। तुम अपने मन में सोचो, तुम्हारे इस पहनापे में दया को भाव मिला हुआ है या नहीं? तुम मेरी गरीबी पर तरस खाकर।

रतन ने लपककर दोनों हाथों से उसका मुंह बंद कर दिया और बोली-बस अब रहने दो। तुम चाहे जो खयाल करो; मगर यह भाव कभी मेरे मन में न था और न हो सकता है। मैं तो जानती हूं, अगर मुझे भूख लगी हो, तो मैं निस्संकोच होकर तुमसे कह दूंगी, बहन, मुझे कुछ खाने को दो, भूखी हूं।

जालपा ने उसी निर्ममता से कहा-इस समय तुम ऐसा कह सकती हो। तुम जानती हो कि किसी दूसरे समय तुम पूरियों या रोटियों के बदले मेवे खिला सकती हो, लेकिन ईश्वर न करे कोई ऐसा समय आए जब तुम्हारे घर में रोटी का टुकड़ा न हो, तो शायद तुम इतनी निस्संकोच न हो सको।

रतन ने दृढ़ता से कहा-मुझे उस दशा में भी तुमसे मांगने में संकोच न होगा। मैत्री परिस्थितियों का विचार नहीं करती। अगर यह विचार बना रहे, तो समझ लो मैत्री नहीं है। ऐसी बातें करके तुम मेरा द्वार बंद कर रही हो। मैंने मन में समझा था, तुम्हारे साथ जीवन के दिन काट दूंगी, लेकिन तुम अभी से चेतावनी दिए देती हो। अभागों को प्रेम की भिक्षा भी नहीं मिलती।

यह कहते-कहते रतन की आंखें सजल हो गईं। जालपा अपने को दुःखिनी समझ रही थी और दुखी जनों को निर्मम सत्य कहने की स्वाधीनता होती है। लेकिन रतन की मनोव्यथा उसकी व्यथा से कहीं विदारक थी। जालपा के पति के लौट आने की अब भी आशा थी। वह जवान है, उसके आते ही जालपा को ये बुरे दिन भूल जाएंगे। उसकी आशाओं का सूर्य फिर