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गबन : 139
 

रतन ने द्वार की ओर देखा। अभी तक महराज का पता न था। हां, टीमल खड़ा था और सामने अथाह अंधकार जैसे अपने जीवन की अंतिम वेदना से मूर्छित पड़ा था।

रतन ने कहा-टीमल, जरा पानी गरम करोगे?

टीमल ने वहीं खड़े-खड़े कहा-पानी गरम करके क्या करोगी बहुजी, गोदान करा दो। दो बूंद गंगाजल मुंह में डाल दो।

रतन ने पति की छाती पर हाथ रखा। छाती गरम थी। उसने फिर द्वार की ओर ताका। महराज न दिखाई दिए। वह अब भी सोच रही थी, कविराजजी आ जाते तो शायद इनकी हालत संभल जाती। पछता रही थी कि इन्हें यहां क्यों लाई? कदाचित् रास्ते की तकलीफ और जलवायु ने बीमारी को असाध्य कर दिया। यह भी पछतावा हो रहा था कि मैं संध्या समय क्यों घूमने चली गई शायद उतनी ही देर में इन्हें ठंड लग गई। जीवन एक दीर्घ पश्चात्ताप के सिवा और क्या है !

पछतावे की एक-दो बात थी ! इस आठ साल के जीवन में मैंने पति को क्या आराम पहुंचाया? वह बारह बजे रात तक कानूनी पुस्तकें देखते रहते थे, मैं पी सोती रहती थी। वह संध्या समय भी मुवक्किलों से मामले की बातें करते थे, मैं पार्क और सिनेमा की सैर करती थी, बाजारों में मटरगश्ती करती थी। मैंने इन्हें धनोपार्जन के एक यंत्र के सिवा और क्या समझा ! यह कितना चाहते थे कि मैं इनके साथ बैटू और बातें करू; पर मैं भागती फिरती थी। मैंने कभी इनके हृदय के समीप जाने की चेष्टा नहीं की, कभी प्रेम की दृष्टि से नहीं देखा। अपने घर में दीपक न जलाकर दूसरों के उजाले घर का आनंद उठाती फिरी–मनोरंजन के सिवा मुझे और कुछ सूझता ही न था। विलास और मनोरंजन, ही मेरे जीवन के दो लक्ष्य थे। अपने जले हुए दिल को इस तरह शांत करके मैं संतुष्ट थी। खीर और मलाई की थाली क्यों न मुझे मिली, इस क्षोभ में मैंने अपनी रोटियों को लात मार दी।

आज रतन को उस प्रेम का पूर्ण परिचय मिला, जो इसे विदा होने वाली आत्मा को उससे था—वह इस समय भी उसी की चिंता में मग्न थी। रतन के लिए जीवन में फिर भी कुछ आनंद था, कुछ रुचि थी. कुछ उत्साह था। इनके लिए जीवन में कौन-सा सुख था! न खाने-पीने की सुख, न मेले-तमाशे का शौक! जीवन क्या, एक दीर्घ तपस्या थी, जिसका मुख्य उद्देश्य कर्तव्य का पालन था? क्या रतन उनका जीवन सुखी न बना सकती थी? क्या एक क्षण के लिए कठोर कर्तव्य की चिंताओं से उन्हें मक्त न कर सकती थी? कौन कह सकता है कि विराम और विश्राम से यह बुझने वाला दीपक कुछ दिन और न प्रकाशमान रहता। लेकिन उसने कभी अपने पति के प्रति अपना कर्तव्य ही न समझा। उसकी अंतरात्मा सदैव विद्रोह करती रही, केवल इसलिए कि इनसे मेरा संबंध क्यों हुआ? क्या उस विषय में सारा अपराध इन्हीं का था ! कौन कह सकता है कि दरिंद्र माता-पिता ने मेरी और भी दुर्गति न की होती जवान आदमी भी सब-के-सब क्या आदर्श ही होते हैं? उनमें भी तो व्यभिचारी, क्रोधी, शराबी सभी तरह के होते हैं। कौन कह सकता है, इस समय मैं किस दशा में होती। रतन का एक-एक रोआं इस समय उसका तिरस्कार कर रहा था। उसने पति के शीतल चरणों पर सिर झुका लिया और बिलख-बिलखकर रोने लगी। वह सारे कठोर भाव जो बराबर उसके मन में उठते रहते थे, वह सारे कटु वचन जो उसने जल-जलकर उन्हें कहे थे, इस समय सैकड़ों बिच्छुओं के समान उसे डंक मार रहे थे। हाय ! मेरी यह व्यवहार उस प्राणी के साथ था, जो सागर की भांति गंभीर था।