पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/१४५

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गबन : 145
 


हुआ देवीजी, मगर यह तो संसार है। आज एक की बारी है, कल दूसरे की बारी है। यही चल-चलाव लगा हुआ है। अब मैं भी चला। नहीं बच सकता। बड़ी प्यास है, जैसे छाती में कोई भट्टी जल रही हो। फुंका जाता हूं। कोई अपना नहीं होता। बाईजी, संसार के नाते सब स्वार्थ के नाते हैं। आदमी अकेला हाथ पसारे एक दिन चला जाता है। हाय-हाय | लड़का था वह भी हाथ से निकल गया । न जाने कहां गया। आज होता, तो एक पानी देने वाला तो होता। यह दो लौंडे हैं, इन्हें कोई फिक्र ही नहीं, मैं मर जाऊं या जी जाऊं। इन्हें तीन दफे खाने को चाहिए, तीन दफे पानी पीने को। बस और किसी काम के नहीं। यहां बैठते दोनों का दम घुटता है। क्या करूं अबकी न बचूंगा।

रतन ने तस्कीन दी-यह मलेरिया है, दो-चार दिन में आप अच्छे हो जायेंगे। घबड़ाने की कोई बात नहीं ।

मुंशीजी ने दीन नेत्रों से देखकर कहा-बैठ जाइए बहूजी, आप कहती हैं, आपका आशीर्वाद है तो शायद बच जाऊं, लेकिन मुझे तो आशा नहीं है। मैं भी ताल ठोके यमराज से लड़ने को तैयार बैठा हूं। अब उनके घर मेहमानी खाऊंगा। अब कहां जाते हैं बचकर बचा ! ऐसा- ऐसा मोदं, कि वह भी याद करें। लोग कहते हैं, वहां भी आत्माएं इसी तरह रहती हैं। इसी तरह वहां भी कचहरियां हैं, हाकिम हैं, राजा हैं, रंक हैं। व्याख्यान होते हैं, समाचार-पत्र छपते हैं। फिर क्या चिंता है। वहां भी अहलमद हो जाऊंगा। मजे से अखबार पढा करूंगा।

रतन को ऐसी हंसी छूटी कि वहां खड़ी न रह सकी। मुंशीजी विनोद के भाव से वे बातें नहीं कर रहे थे। उनके चेहरे पर गंभीर विचार को रेखा थी। आज डेढ़-दो महीने के बाद रतन हंसी, और इस असामयिक हंसी को छिपाने के लिए कमरे से निकल आई। उसके साथ ही जालपा भी बाहर आ गई।

रतन ने अपराधी नेत्रों से उसकी ओर देखकर कहा-दादाजी ने मन में क्या समझा होगा। सोचते होंगे, मैं तो जान से मर रहा हूं और इसे हंसी सूझती है। अब वहां न जाऊंगी, नहीं ऐसी ही कोई बात फिर कहेंगे, तो मैं बिना हंसे न रह सकूगीं। देखो तो आज कितनी बे-मौका हंसी आई है।

वह अपने मन को इस उच्छृंखलता के लिए धिक्कारने लगी। जालपा ने उसके मन का भाव ताड़कर कहा-मुझे भी अक्सर इनकी बातों पर हंसी आ जाती है, बहन ! इस वक्त तो इनकी ज्वर कुछ हल्का है। जब जोर का ज्वर होता है तब तो यह और भी ऊल-जलूल बकने लगते हैं। उस वक्त हंसी रोकनी मुश्किल हो जाती है। आज सबेरे कहने लगे—मेरा पेट भक हो गया-मेरा पेट भक हो गया। इसकी रट लगा दी। इसका आशय क्या था, न मैं समझ सकीं, न अम्मां समझ सकीं, पर वह बराबर यही रटे जाते थे—पेट भक हो गया । पेट भक हो गया ! आओ कमरे में चलें।

रतन–मेरे साथ न चलोगी?

जालपा-आज तो न चल सकूगीं, बहन।

‘कल आओगी?'

‘कह नहीं सकती। दादा का जी कुछ हल्का रहा, तो आऊंगी।'

'नहीं भाई, जरूर आना। तुमसे एक सलाह करनी है।'