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146 : प्रेमचंद रचनावली-5
 

‘क्या सलाह है?'

'मन्नी कहते हैं, यहां अब रहकर क्या करना है, घर चलो। बंगले को बेच देने को कहते जालपा ने एकाएक ठिठककर उसका हाथ पकड़ लिया और बोली-यह तो तुमने बुरी खबर सुनाई, बहन ! मुझे इस दशा में तुम छोड़कर चली जाओगी? मैं न जाने दूंगी ! मनी से कह दो, बंगला बेच दें, मगर जब तक उनका कुछ पता न चल जायगा। मैं तुम्हें न छोडूगी। तुम कुल एक हफ्ते बाहर रहीं, मुझे एक-एक पल पहाड़ हो गया। मैं न जानती थी कि मुझे तुमसे इतना प्रेम हो गया है। अब तो शायद मैं मर ही जाऊं। नहीं बहन, तुम्हारे पैरों पड़ती हूं, अभी जाने का नाम न लेना।

रतन की भी आंखें भर आईं। बोली-मुझसे भी वहां न रहा जायगा, सच कहती हूं। मैं तो कह दूंगी, मुझे नहीं जाना है। जालपा उसका हाथ पकड़े हुए ऊपर अपने कमरे में ले गई और उसके गले में हाथ डालकर बोली-कसम खाओ कि मुझे छोड़कर न जाओगी।

रतन ने उसे अंकबार में लेकर कहा-लो, कसम खाती हूं, न जाऊंगी। चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय। मेरे लिए वहां क्या रखा है। बंगला भी क्यों बेचूं। दो-ढाई सौ मकानों का किराया है। हम दोनों के गुजर के लिए काफी है। मैं आज ही मन्नी से कह दूंगी-मैं न जाऊंगी।

सहसा फर्श पर शतरंज के मुहरे और नक्शे देखकर उसने पूछा--यह शतरंज किसके साथ खेल रही थीं?

जालपा ने शतरंज के नक्शे पर अपने भाग्य का पांसा फेंकने की जो बात सोचीं थीं, वह सब उससे कह सुनाई। मन में डर रही थी कि यह कहीं इस प्रस्ताव को व्यर्थ न समझे,पागलपन न खयाल करे; लेकिन रतन सुनते ही बाग-बाग हो गई। बोली-दस रुपये तो बहुत कम पुरस्कार है। पचास रुपये कर दो। रुपये मैं देती हूं।

जालपा ने शंका की-लेकिन इतने पुरस्कार के लोभ से कहीं अच्छे शतरंजबाजों ने मैदान में कदम रखा तो?

रतन ने दृढता से कहा-कोई हरज नहीं। बाबूजी की निगाह पड़ गई, तो वह इसे जरूर हल कर लेंगे और मुझे आशा है कि सबसे पहले उन्हीं का नाम आयेगी। कुछ न होगा; तो पता तो लग ही जायगा। अखबार के दफ्तर में तो उनका पता आ ही जायगा। तुमने बहुत अच्छा उपाय सोच निकाला है। मेरा मन कहता है, इसका अच्छा फल होगा, मैं अब मन की प्रेरणा की कायल हो गई हूं। जब मैं इन्हें लेकर कलकत्ते चली थी, उस वक्त मेरा मन कह रहा था, यहां जाना अच्छा न होगा।

जालपा-तो तुम्हें आशा है?

‘पूरी । मैं कल सबेर रुपये लेकर आऊंगी।'

'तो मैं आज खत लिख रक्यूंगी। किसके पास भेजूं? यहां का कोई प्रसिद्ध पत्र होना चाहिए।'

'वहां तो 'प्रजा-मित्र' की बड़ी चर्चा थी; पुस्तकालयों में अक्सर लोग उसी को पढ़ते नजर आते थे।'