पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/१४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
गबन : 147
 


'तो' प्रजा-मित्र' ही को लिखूंगी, लेकिन रुपये हड़प कर जाय और नक्शा न छापे तो क्या हो?'

'होगा क्या, पचास रुपये ही तो ले जाएगा। दमड़ी की हाँड़या खोकर कुत्ते की जात तो पहचान ली जायगी, लेकिन ऐसा हो नहीं सकता। जो लोग देशहित के लिए जेल जाते हैं, तरह-तरह की धौंस सहते हैं, वे इतने नीच नहीं हो सकते। मेरे साथ आध घंटे के लिए चलो तो तुम्हें इसी वक्त रुपये दे दूं।'

जालपा ने नाराज होकर कहा-इस वक्त कहां चलें। कल ही आऊंगी।

उसी वक्त मुंशीजी पुकार उठे-बहू!बहू ।

जालपा तो लपकी हुई उनके कमरे की ओर चली। रतने बाहर जा रही थी कि जागेश्वरी पंखी लिए अपने को झलती हुई दिखाई पड़ गईं। रतन ने पूछा-तुम्हें गर्मी लग रही है अम्मांजी? मैं तो ठंड के मारे कांप रही हूं। अरे तुम्हारे पांवों में यह क्या उजला-उजला लगा हुआ है? क्या आटा पीस रही थीं?

जागेश्वरी ने लज्जित होकर कहा-हां, वैद्यजी ने इन्हें हाथ के आटे की रोटी खाने को कहा है। बाजार में हाथ का आटा कहां मयस्सर? मुहल्ले में कोई पिसनहारी नहीं मिलती। मजूरिने तक चक्की से आटा पिसवा लेती हैं। मैं तो एक आना सेर देने को राजी हूं, पर कोई मिलती ही नहीं।

रतन ने अचंभे से कहा-तुमसे चक्की चल जाती है?

जागेश्वरी ने झेप से मुस्कराकर कहा-कौन बहुत थी। पाव भर तो दो दिन के लिए हो जाता है। खाते नहीं एक कौर भी। बहू पीसने जा रही थी, लेकिन फिर मुझे उनके पास बैठना पड़ता। मुझे रात-भर चक्की पीसना गौं है, उनके पास घड़ी भर बैठना गौं नहीं।

रतन जाकर जांत के पास एक मिनट खड़ी रही, फिर मुस्कराकर माची पर बैठ गई और बोली-तुमसे तो अब जांत न चलता होगा, मांजी ! लाओ थोड़ा-सा गेहूं मुझे दो, देखें तो।

जागेश्वरी ने कानों पर हाथ रखकर कहा- अरे नहीं बहू, तुम क्या रोगी । चलो यहां रतन ने प्रमाण दिया-मैंने बहुत दिनों तक पीसा है, मांजी। जब मैं अपने घर थी, तो रोज़ पीसती थी। मेरी अम्मां, लाओ थोड़ा-सा गेहूं।

‘हाथ दुखने लगेगा। छाले पड़ जाएंगे।'

'कुछ नहीं होगा भांजी, आप गेहूं तो लाइए।'

जागेश्वरी ने उसका हाथ पकड़कर उठाने की कोशिश करके कहा-गेहूं घर में नहीं हैं। अब इस वक्त बाजार से कौन लावे।

'अच्छा चलिए, मैं भंडारे में देखें। गेहूं होगा कैसे रहीं।'

रसोई की बगल वाली कोठरी में सब खाने-पीने का सामान रहता था। रतने अंदर चली गई और हडियों में टटोल-टटोलकर देखने लगी। एक हांडी में गेहूं निकल आए। बड़ी खुश हुई। बोली-देखो मांजी, निकले कि नहीं, तुम मुझसे बहाना कर रही थीं।

उसने एक टोकरी में थोड़ा-सा गेहूं निकाल लिया और खुश-खुश चक्की पर जाकर