पीसने लगी। जागेश्वरी ने जाकर जालपा से कहा--बहू, वह जांत पर बैठी गेहूं पीस रही हैं। उठाती हूं, उठती ही नहीं। कोई देख ले तो क्या कहे।
जालपा ने मुंशीजी के कमरे से निकलकर सास की घबराहट का आनंद उठाने के लिए कहा-यह तुमने क्या गजब किया, अम्मांजी ! सचमुच, कोई देख ले तो नाक ही कट जाय । चलिए, जरा देखें।
जागेश्वरी ने विवशता से कहा-क्या करूं, मैं तो समझा के हार गई, मानती ही नहीं।
जालपा ने जाकर देखा, तो रतन गेहूं पीसने में मग्न थी। विनोद के स्वाभाविक आनंद से उसका चेहरा खिला हुआ था। इतनी ही देर में उसके माथे पर पसीने की बूंदें आ गई थीं। उसके बलिष्ठ हाथों में जांत लट्टू के समान नाच रहा था।
जालपा ने हंसकर कहा-ओ री, आटा महीन हो, नहीं पैसे न मिलेंगे।
रतन को सुनाई न दिया। बहरों की भांति अनिश्चित भाव से मुस्कराई। जालपा ने और जोर से कहा-आटा खूब महीन पीसना, नहीं पैसे न पाएगी।
रतन ने भी हंसकर कहा-जितना महीन कहिए उतना महीन पीस दें, बहूजी। पिसाई अच्छी मिलनी चाहिए।
जालपा-धेले सेर।
रतन-धेले सेर सही।
जालपा-मुंह धो आओ। धेले सेर मिलेंगे।
रतन-मैं यह सब पीसकर उठूँगी। तुम यहां क्यों खड़ी हो?
जालपा-आ जाऊं, मैं भी खींच दूँ।
रतन-जी चाहता है, कोई जांत का गीत गाऊं।
जालपा-अकेले कैसे गाओगी । (जागेश्वरी से) अम्मां आप जरा दादाजी के पास बैठ जायं, मैं अभी आती हूँ।
जालपा भी जांत पर जा बैठी और दोनों जांत का यह गीत गाने लगी।
मोही जोगिन बनाके कहां गए रे जोगिया।
दोनों के स्वर मधुर थे। जांत की घुमुर-घुमुर उनके स्वर के साथ साज का काम कर रही थी। जब दोनों एक कड़ी गाकर चुप हो जातीं, तो जांत का स्वर मानो कठ-ध्वनि से रंजित होकर और भी मनोहर हो जाता था। दोनों के हृदय इस समय जीवन के स्वाभाविक आनंद से पूर्ण थे? न शोक का भार था, न वियोग का दुःख। जैसे दो चिड़ियां प्रभात की अपूर्व शोभा से मग्न होकर चहक रही हों।
तैंतीस
रमानाथ की चाय की दुकान खुल तो गई, पर केवल रात को खुलती थी। दिन-भर बंद रहती थी। रात को भी अधिकतर देवीदीन ही दुकान पर बैठता, पर बिक्री अच्छी हो जाती थी। पहले ही दिन तीन रुपये के पैसे आए, दूसरे दिन से चार-पांच रुपये का औसत पड़ने लगा। चाय