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गबन : 153
 


रहने वाला है, नाम है रमानाथ। पहले नाम और सकूनत दोनों गलत बतलाई थीं। देवीदीन खटिक जो नुक्कड़ पर रहता है, उसी के घर ठहरा हुआ है। जरा डांट बताइएगा तो सब कुछ उगल देगा।

दारोगा–देवीदीन वही है न जिसके दोनों लड़के।

सिपाही-जी हां, वही है।

इतने में रमानाथ भी दारोगा के सामने हाजिर किया गया। दारोगा ने उसे सिर से पांव तक देखा, मानो मन में उसका हुलिया मिला रहे हों। तब कठोर दृष्टि से देखकर बोले-अच्छा,यह इलाहाबाद का रमानाथ है। खूब मिले भाई। छ: महीने से परेशान कर रहे हो। कैसा साफ हुलिया है कि अंधा भी पहचान ले। यहां कब से आए हो?

कांस्टेबल ने रमा को परामर्श दिया-सब हाल सच-सच कह दो, तो तुम्हारे साथ कोई सख्ती न की जाएगी।

रमा ने प्रसन्नचित्त बनने की चेष्टा करके कहा-अब तो आपके हाथ में हूं, रियायत कीजिए या सख्ती कीजिए। इलाहाबाद की म्युनिसिपैलिटी में नौकर था। हिमाकत कहिए या बदनसीबी, चुंगी के चार सौ रुपये मुझसे खर्च हो गए। मैं वक्त पर रुपये जमा कर सका। शर्म के मारे घर के आदमियों से कुछ न कहा, नहीं तो इतने रुपये इंतजाम हो जाना कोई मुश्किल न था। जब कुछ बस न चला, तो वहां से भागकर यहां चला आया। इसमें एक हर्फ भी गलत नहीं है।

दारोगा ने गंभीर भाव से कहा- मामला कुछ संगीन है, क्या कुछ शराब का चस्का पड़ गया था?

'मुझसे कसम ले लीजिए, जो कभी शराब मुंह से लगाई हो।'

कांस्टेबल ने विनोद करके कहा-मुहब्बत के बाजार में लुट गए होंगे, हुजूर।

रमा ने मुस्कराकर कहा-मुझसे फाकेमस्तों का वहां कहां गुजर?

दारोगा—तो क्या जुआ खेल डाला? या, बीवी के लिए जेवर बनवा डाले !

रमा झेपकर रह गया। अपराधी मुस्कराहट उसके मुख पर रो पड़ी।

दारोगा—अच्छी बात है,तुम्हें भी यहां खासे मोटे जेवर मिल जायंगे।

एकाएक बूढ़ा देवीदीन आकर खड़ा हो गया।

दारोगा ने कठोर स्वर में कहा-क्या काम है यहां?

देवीदीन-हुजूर को सलाम करने चला आया। इन बेचारों पर दया की नजर रहे हुजूर,बेचारे बड़े सीधे आदमी हैं।

दारोगा-बचा सरकारी मुलजिम को घर में छिपाते हो, उस पर सिफारिश करने आए हो।


देवीदीन-मैं क्या सिफारिस करूंगा हुजूर, दो कौड़ी का आदमी।

दारोगा-जानता है,इन पर वारंट है,सरकारी रुपये गबन कर गए हैं।

देवीदीन-हुजूर, भूल-चूक आदमी से ही तो होती है। जवानी की उम्र है ही, खर्च हो गए होंगे।