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154 : प्रेमचंद रचनावली-5
 

दारोगा ने तड़पकर कहा-यह क्या है?

देवीदीन-कुछ नहीं है, हुजूर को पान खाने को।

दारोगा-रिश्वत देना चाहता है!क्यों? कहो तो बचा, इसी इल्जाम में भेज दें।

देवीदीन-भेज दीजिए सरकार। घरवाली लकड़ी-कफन की फिकर से छूट जाएगी।

वहीं बैठा आपको दुआ दूंगा।

दारोगा—अबे इन्हें छुड़ाना है तो पचास गिन्नियां लाकर सामने रक्खो। जानते हो इनकी गिरफ्तारी पर पांच सौ रुपये का इनाम है।

देवीदीन-आप लोगों के लिए इतनी इनाम हुजूर क्या है। यह गरीब परदेसी आदमी हैं,जब तक जिएंगे आपको याद करेंगे।

दारोग–बक-बक मत कर, यहां धरम कमाने नहीं आया हूं।

देवीदीन-बहुत तंग हूं हुजूर। दुकान-दारी तो नाम की है।

कांस्टेबल- बुढ़िया से मांग जाके।

देवीदीन-कमाने वाला तो मैं ही हूं हुजूर, लड़कों का हाल जानते ही हो। तन-पेट काटकर कुछ रुपये जमा कर रखे थे, सो अभी सातों-धाम किए चला आता हूं। बहुत तंग हो गया है।

दारोगा- तो अपनी गिन्नियां उठा ले। इसे बाहर निकाल दो जी।

देवीदीन-आपका हुकुम है, तो लीजिए जाता हूँ। धक्के क्यों दिलवाइएगा । दारोगा—(कांस्टेबल से) इन्हें हिरासत में रखो। मुंशी से कहो इनका बयान लिख लें।

देवीदीन के होंठ आवेश से कांप रहे थे। उसके चेहरे पर इतनी व्यग्रता रमा ने कभी नहीं देखी, जैसे कोई चिड़िया अपने घोंसले में कौवे को घुसते देखकर विहल हो गई हो। वह एक मिनट तक थाने के द्वार पर खड़ा रहा, फिर पीछे फिरा और एक सिपाही से कुछ कहा, तब लपका हुआ सड़क पर चला गया, मगर एक ही पल में फिर लौय और दारोगा से बोला-हुजूर,दो घंटे की मुहलत न दीजिएगा?

रमा अभी वहीं खड़ा था। उसकी यह ममता देखकर रो पड़ा। बोला-दादा, अब तुम हैरान न हो, मेरे भाग्य में जो कुछ लिखा है, वह होने दो। मेरे भी यहां होते, तो इससे ज्यादा और क्या करते । मैं मरते दम तक तुम्हारा उपकार देवीदीन ने आंखें पोंछते हुए कहा-कैसी बातें कर रहे हो, भैया | जब रुपये पर आई तो देवीदीन पीछे हटने वाला आदमी नहीं है। इतने रुपये तो एक-एक दिन जुए में हार-जीत गयो हूं। अभी घर बेच दें, तो दस हजार की मालियत है। क्या सिर पर लाद कर ले जाऊंगा। दारोगाजी, अभी भैया को हिरासत में न भेजो। मैं रुपये की फिकर करके थोड़ी देर में आता हूं।

देवीदीन चला गया तो दारोगाजी ने सहयता से भरे स्वर में कहा है तो खुर्राट, मगर बड़ा नेक। तुमने इसे कौन-सी बूटी सुंघा दी?

रमा ने कहा-गरीबों पर सभी को रहम आता है।

दारोगा ने मुस्कराकर कहा–पुलिस को छोड़कर; इतना और कहिए। मुझे तो यकीन नहीं कि पचास गिन्नियां लावे।