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162 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


नहीं भेजी। सोलह रुपये किसके घर से लाता। एक दिन सिविल सर्जन के पास गया,मगर उन्होंने चिट्ठी लिखने से इनकार किया। आप तो जानते हैं वह बिना फीस लिए बात नहीं करते। मैं चला आया और दरख्वास्त भेज दी। मालूम नहीं मंजूर हुई या नहीं। यह तो डाक्टरों का हाल है। देख रहे हैं कि आदमी मर रहा है, पर बिना भेट लिए कदम न उठावेंगे !

रमेश बाबू ने चिंतित होकर कहा-यह तो आपने बुरी खबर सुनाई। मगर आपकी छुट्टी नामंजूर हुई तो क्या होगा?

मुंशीजी ने माथा ठोंकर कहा-होगा क्या, घर बैठ रहूंगा। साहब पूछेगे तो साफ कह दूंगा,मैं सर्जन के पास गया था, उसने छुट्टी नहीं दी। आखिर इन्हें क्यों सरकार ने नौकर रखा है।महज कुर्सी की शोभा बढ़ाने के लिए? मुझे डिसमिस हो जाना मंजूर है, पर सर्टिफिकेट न दूंगा। लौंडे गायब हैं। आपके लिए पान तक लाने वाला कोई नहीं। क्या करूं?

रमेश ने मुस्कराकर कहा-मेरे लिए आप तरद्दुद न करें। मैं आज पान खाने नहीं,भरपेट मिठाई खाने आया हूं। (जालपा को पुकारकर) बहुजी, तुम्हारे लिए खुशखबरी लाया हूं। मिठाई मंगवा लो।

जालपा ने पान की तश्तरी उनके सामने रखकर कहा-पहले वह ख़बर सुनाइए! शायद आप जिस खबर को नई-नई समझ रहे हों, वह पुरानी हो गई हो।

रमेश-जी कहीं हो न। रमानाथ का पता चल गया। कलकत्ते में हैं।

जालपा-मुझे पहले ही मालूम हो चुका है।

मुंशीजी झपटकर उठ बैठे। उनका ज्वर मान भागकर उत्सुकता की आड़ में जा छिपा।

रमेश का हाथ पकड़कर बोले–मालूम हो गया कलकत्ते में हैं? कोई खत आया था?

रमेश-खत नहीं था, एक पुलिस इंक्वायरी थी। मैंने कह दिया, उन पर किसी तरह का इल्जाम नहीं है। तुम्हें कैसे मालूम हुआ, बहूजी?

जालपा ने अपनी स्कीम बयान की। 'प्रजा-मित्र' कार्यालय को पत्र भी दिखाया। पत्र के साथ रुपयों की एक रसीद थी जिस पर रमा का हस्ताक्षर था।

रमेश—दस्तख़त तो रमा बाबू की है,बिल्कुल साफ! धोखा हो ही नहीं सकता। मान गया बहूजी तुम्हें । वाह, क्या हिकमत निकाली है। हम सबके कान काट लिए। किसी को न सूझी। अब जो सोचते हैं,तो मालूम होता है, कितनी आसान बात थी। किसी को जाना चाहिए जो बचा को पकड़कर घसीट लाए।

यह बातचीत हो रही थी कि रतन आ पहुंची। जालपा उसे देखते ही वहां से निकली और उसके गले से लिपटकर बोली-बहन कलकत्ते से पत्र आ गया। वहीं हैं।

रतन–मेरे सिर की कसम?

जालपा-हां, सच कहती हूं। खत देखो न ।

रतन-तो आज ही चली जाओ।

जालपा-यही तो मैं भी सोच रही हूं। तुम चलोगी?

रतन-चलने को तो मैं तैयार हूं, लेकिन अकेला घर किस पर छोड़ू। बहन, मुझे मणिभूषण पर कुछ शुबहा होने लगा है। उसकी नीयत अच्छी नहीं मालूम होती। बैंक में बीस