हजार रुपये से कम न थे। सब न जाने कहां उड़ा दिए। कहता है, क्रिया-कर्म में खर्च हो गए। हिसाब मांगती हूँ, तो आंखें दिखाता है। दफ्तर की कुंजी अपने पास रखे हुए है। मांगती हूं, तो टोल जाता है। मेरे साथ कोई कानूनी चाल चल रहा है। डरती हूं, मैं उधर जाऊँ, इधर वह सब कुछ ले-देकर चलता बने। बंगले के गाहक आ रहे हैं। मैं भी सोचती हूँ, गांव में जाकर शांति से पड़ी रहूं। बंगला बिक जायगा, तो नकद रुपये हाथ आ जाएंगे। मैं न रहूंगी, तो शायद ये रुपये मुझे देखने को भी न मिलें। गोपी को साथ लेकर आज ही चली जाओ। रुपये का इंतजाम मैं कर दूंगी।
जालपा–गोपीनाथे तो शायद न जा सके। दादा की दवा-दारू के लिए भी तो कोई चाहिए।
रतन-वह मैं कर दूंगी। मैं रोज सवेरे आ जाऊंगी और दवा देकर चली जाऊंगी। शाम को भी एक बार आ जाया करूंगी।
जालपा ने मुस्कराकर कहा-और दिन- पर उनके पास बैठा कौन रहेगा?
रतन-मैं थोड़ी देर बैठी भी रहा करूंगी;मगर तुम आज ही जाओ। बेचारे वहां न जाने किस दशा में होंगे। तो यही तय ही न?
रतन मुंशीजी के कमरे में गई,तो रमेश बाबू उठकर खड़े हो गए और बोले-आइए देवीजी, रमा बाबू का पता चल गया !
रतन-इसमें आधा श्रेय मेरा है।
रमेश-आपकी सलाह से तो हुआ हीं होगा। अब उन्हें यहां लाने की फिक्र करनी है।
रतन-जालपा चली जाएं और पकड़ लाएं। गोपी को साथ लेती जावें। आपको इसमें कोई आपत्ति तो नहीं है, दादाजी?
मुंशीजी को आपत्ति तो थी, उनका बस चलता तो इस अवसर पर दस-पांच आदमियों को और जमा कर लेते,फिर घर के आदमियों के चले जाने पर क्यों पत्ति न होती,मगर समस्या ऐसी आ पड़ी थी कि कुछ बोल न सके।
गोपी कलकत्ते की सैर का ऐसा अच्छा अवसर पाकर क्यों न खुण होता। विशम्भर दिल में ऐंठकर रह गया। विधाता ने उसे छोटी न बनाया होता, तो आज उसकी यह हकतलफी न होती। गोपी ऐसे कहां के बड़े होशियार हैं, जहां जाते हैं कोई-न-कोई चीज खो आते हैं। हां, मुझसे बड़े हैं। इस दैवी विधान ने उसे मजबूर कर दिया।
रात को नौ बजे जालपा चलने को तैयार हुई। सास-ससुर के चरणों पर सिर झुकाकर आशीर्वाद लिया,विशम्भर रो रहा था,उसे गले लगा कर प्यार किया और मोटर पर बैठी रतन स्टेशन तक पहुंचाने के लिए आई थी।
मोटर चली तो जालपा ने कहा-बहन, कलकत्ता तो बहुत बड़ा शहर होगा। वहां कैसे पता चलेगा?
रतन-पहले 'प्रजा-मित्र' के कार्यालय में जाना। वहां से पता चल जाएगा। गोपी बाबू तो हैं ही।
जालपा–ठहरूंगी कहां?