पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/१७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
176 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


बदलकर मेरे साथ छल तो नहीं कर रहा है। वह ज्यों-ज्यों पीछे हटता गया, वह छाया उसकी ओर बढ़ती गई,यहां तक कि तार के पास आकर उसने कोई चीज रमा की तरफ फेंकी। रमा चीख मारकर पीछे हट गया; मगर वह केवल एक लिफाफा था। उसे कुछ तस्कीन हुई। उसने फिर जो सामने देखा,तो वह छाया अंधकार में विलीन हो गई थी। रमा ने लपककर वह लिफाफा उठा लिया। भय भी था और कौतूहल भी। भय कम था,कौतूहल अधिक। लिफाफे को हाथ में लेकर देखने लगा। सिरनामा देखते ही उसके हृदय में फुरहरियां-सी उड़ने लगीं। लिखावट जालपा की थी। उसने फौरन लिफाफा खोला। जालपा ही की लिखावट थी। उसने एक ही सांस में पत्र पढ़ डाला और तब एक लंबी सांस ली। उसी सांस के साथ चिंता का वह भीषण भार जिसने आज छ: महीने से उसकी आत्मा को दबाकर रखा था,वह सारी मनोव्यथा जो उसका जीवन-रक्त चूस रही थी,वह सारी दुर्बलता, लज्जा,ग्लानि मानो उड़ गई, छूमंतर हो गई। इतनी स्फूर्ति, इतना गर्व, इतना आत्म-विश्वास उसे कभी न हुआ था। पहली सनक यह सवार हुई, अभी चलकर दारोगा से कह दूं, मुझे इस मुकदमे से कोई सरोकार नहीं है,लेकिन फिर खयाल आयी,बयान तो अब हो ही चुका,जितना अपयश मिलना था,मिल ही चुका,अब उसके फल से क्यों हाथ धोऊ। मगर इन सबों ने मुझे कैसा चकमा दिया है और अभी तक मुगालते में डाले हुए हैं। सब-के-सब मेरी दोस्ती का दम भरते हैं,मगर अभी तक असली बात मुझसे छिपाए हुए हैं। अब भी इन्हें मुझ पर विश्वास नहीं। अभी इसी बात पर अपना बयान बदल दें, तो आटे-दाल का भाव मालूम हो। यही न होगा, मुझे कोई जगह न मिलेगी। बला से, इन लोगों के मनसूबे तो खाक में मिल जाएंगे। इस दगाबाजी की सजा हो मिल जायगी। और, यह कुछ न सही, इतनी बड़ी बदनामी से तो कुछ जाऊंगा। यह सब शरारत जरूर करेंगे, लेकिन झूठा इल्जाम लगाने के सिवा और कर ही क्या सकते हैं। जब मेरा यहा रहना साबित ही नहीं तो मुझ पर दोष ही क्या लग सकती हैं। सके मुंह में कालिख लग जायगी। मुंह तो दिखाया न जाएगा मुकदमा क्या चलाएंगे।

मगर नहीं, इन्होंने मुझसे चाल चली है, तो मैं भी इनसे वही चाल चलूं। कह दूंगा,अगर मुझे आज कोई अच्छी जगह मिल जाएगी, तो मैं शहादत दंगा,वरना साफ कह देगा,इस मामले से मेरा कोई संबंध नहीं। नहीं तो पीछे से किसी छोटे-मोटे थाने में नायब दारोगा बनाकर भेज दें और वहां सड़ा करू लुंग्गा इंस्पेक्टरी और कल दस बजे मेरे पास नियुक्ति का परवाना आ जाना चाहिए। वह चला कि इसी वक्त दारोगा से कह दूं, लेकिन फिर रुक गया। एक बार जालपा से मिलने के लिए उसके प्राण तड़प रहे थे। उसके प्रति इतना अनुराग, इसनी श्रद्धा उसे कमी न हुई थी, मानो वह कोई दैवी-शक्ति हो जिसे देवताओं ने उसकी रक्षा के लिए भेजा हो।

दस बज गए थे। रमानाथ ने बिजली गुल कर दी और बरामदे में आकर जोर से किवाड़ बंद कर दिए, जिसमें पहरे वाले सिपाही को मालूम हो, अंदर से किवाड़ बंद करके सो रहे हैं। वह अंधेरे बरामदे में एक मिनट खड़ा रहा। तब आहिस्ता से उतरा और कांटेदार फेंसिंग के पास आकर सोचने लगी, उस पार कैसे जाऊ? शायद् अभी जालपा बगीचे में हो। देवीदीन जरूर उसके साथ होगा। केवल यही तार उसकी राह रोके हुए था। उसे फांद जाना असंभव था। उसने तारों के बीच से लेकर निकल जाने का निश्चय किया। अपने सब कपले समेट लिए और कांटों