पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/१७७

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को बचाता हुआ सिर और कंधे को तार के बीच में डाला; पर न जाने कैसे कपड़े फंस गए। उसने हाथ से कपड़ों को छुड़ाना चाहा, तो आस्तीन कांटों में फंस गई। धोती भी उलझी हुई थी। बेचारा बड़े सकंट में पड़ा। न इस पार जा सकता था, न उस पार। जरा भी असावधानी हुई और कांटे उसकी देह में चुभ जाएंगे।

मगर इस वक्त उसे कपड़ों की परवा न थी। उसने गर्दन और आगे बढ़ाई और कपड़ों में लंबा चीरा लगाती उस पार निकल गया। सारे कपड़े तार-तार हो गए। पीठ में भी कुछ खरोंचे लगे; पर इस समय कोई बंदूक का निशाना बांधकर भी उसके सामने खड़ा हो जाता, तो भी वह पीछे न हटता। फटे हुए कुरते को उसने वहीं फेंक दिया; गले की चादर फट जाने पर भी काम दे सकती थी, उसे उसने ओढ़ लिया, धोती समेट ली और बगीचे में घूमने लगा। सन्नाटा था। शायद रखवाला खटिक खाना खाने गया हुआ था। उसने दो-तीन बार धीरे-धीरे जालपा का नाम लेकर पुकारा भी किसी की आहट न मिली;पर निराशा होने पर भी मोह ने उसका गला न छोड़ा। उसने एक पेड़ के नीचे जाकर देखा। समझ गया,जालपा चली गई। वह उन्हीं पैरों देवीदीन के घर की ओर चला। उसे जरा भी शोक न था। बला से किसी को मालूम हो जाय कि मैं बंगले से निकल आया हूं, पुलिस मेरा कर ही क्या सकती है। मैं कैदी नहीं हूं, गुलामी नहीं लिखाई है।

आधी रात हो गई थी। देवीदीन भी आध घंटा पहले लौटा था और खाना खाने जा रहा था कि एक नंगे- धड़गे आदमी को देखकर चौंक पड़ा। रमा ने चादर सिर पर बांध ली थी और देवीदीन को डराना चाहता था।

देवीदीन ने सशंक होकर कहा-कौन है?

सहसा पहचान गया और झपटकर उसकी हाथ पकड़ता हुआ बोला-तुमने तो भैया खूब भेस बनाया है? कपड़े क्या हुए? ।

रमानाथ-तार से निकल रहा था। सब उसके कांटों में उलझकर फट गए।

देवीदीन-राम राम । देह में तो कांटे नहीं चुभे?

रमानाथ-कुछ नहीं,दो-एक खरोंचे लग गए। मैं बहुत बचाकर निकला।

देवीदीन-बहू की चिट्ठी मिल गई न?

रमानाथ-हां,उसी वक्त मिल गई थी। क्या वह भी तुम्हारे साथ थी?

देवीदीन-वह मेरे साथ नहीं थीं,मैं उनके साथ था। जब से तुम्हें मोटर पर आते देखा,तभी से जाने-जाने लगाए हुए थीं।

रमानाथ–तुमने कोई खत लिखा था?

देवीदीन—मैंने कोई खत-पत्तर नहीं लिखा भैया!वह आईं तो मुझे आप हो अचंभा हुआ कि बिना जाने-बुझे कैसे आ गईं। पीछे से उन्होंने बताया। वह सतरंजे वाला नकसा उन्हीं ने पराग से भेजा था और इनाम भी वहीं से आया था।

रमा की आंखें फैल गई। जालपा की चतुराई ने उसे विस्मय में डाल दिया। इसके साथ ही पराजय के भाव ने उसे कुछ खिन्न कर दिया। यहां भी उसकी हार हुई। इस बुरी तरह !

बुढ़िया ऊपर गई हुई थी। देवीदीन ने जीने के पास जाकर कहा-अरे क्या करती है? बहू