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गबन:181
 


प्रायश्चित पूरा नहीं हुआ है, इसीलिए यह दुर्बलता हमारे पीछे पड़ी हुई है। मैं देख रही हूं, यह हमारा सर्वनाश करके छोड़ेगी।

रमा के दिल पर कुछ चोट लगी। सिर खुजलाकर बोला-चाहता तो मैं भी हूं कि किसी तरह इस मुसीबत से जान बचे।।

‘तो बचाते क्यों नहीं। अगर तुम्हें कहते शर्म आती हो, तो मैं चलें। यही अच्छा होगा। मैं भी चली चलेंगी और तुम्हारे सुपरंडंट साहब से सारा वृत्तांत साफ-साफ कह दूंगी।'

रमा का सारा पसोपेश गायब हो गया। अपनी इतनी दुर्गति वह न कराना चाहता था कि उसकी स्त्री जाकर उसकी वकालत करे। बोला-तुम्हारे चलने की जरूरत नहीं है जालपा, मैं उन लोगों को समझा दूंगा।

जालपा ने जोर देकर कहा-साफ बताओ, अपना बयान बदलोगे या नहीं? रमा ने मानो कोने में दबकर कहा-कहता तो हूं, बदल दूंगा।

'मेरे कहने से या अपने दिल से?'

'तुम्हारे कहने से नहीं, अपने दिल से। मुझे खुद ही ऐसी बातों से घृणा है। सिर्फ जरा हिचक थी, वह तुमने निकाल दी।'

फिर और बातें होने लगीं। कैसे पता चला कि रमा ने रुपये उड़ा दिए हैं? रुपये अदा कैसे हो गए? और लोगों को गबन की खबर हुई या घर ही में दबकर रह गई? रतन पर क्या गुजरी? गोपी क्यों इतनी जल्द चला गया? दोनों कुछ पढ़ रहे हैं या उसी तरह आवारा फिरा करते हैं? आखिर में अम्मां और दादा का जिक्र आया। फिर जीवन के मनसुबे बांधे जाने लगे। जालपा ने कहा-घेरे चलकर रतन से थोड़ी-जमीन ले लें और आनंद से खेती-बारी करें। रमा ने कहा-कहीं उससे अच्छा है कि यहां चाय की दुकान खोलें। इस पर दोनों में मुबहसा हुआ। आखिर रमा को हार माननी पड़ी। यहां रहकर वह घर की देखभाल न कर सकता था, भाइयों को शिक्षा न दे सकता था और न माता-पिता का सेवा-सत्कार कर सकता था। उधर घरवालों के प्रति भी तो उसका कुछ कर्तव्य है। रमा निरुत्तर हो गया।

चालीस

रमा मुंह-अंधेरे अपने बंगले जा पहुंचा। किसी को कानों-कान खबर न हुई। | नाश्ता करके रमा ने खत साफ किया, कपड़े पहने और दारोगा के पास जा पहुंचा। त्योरियां चढ़ी हुई थीं। दारोगा ने पूछा-खैरियत तो है, नौकरों ने कोई शरारत तो नहीं की।

रमा ने खड़े-खड़े कहा–नौकरों ने नहीं, आपने शरारत की है, आपके मातहतों,अफसरों और सब ने मिलकर मुझे उल्लू बनाया है।

दारोगा ने कुछ घबड़ाकर पूछा-आखिर बात क्या है,कहिए तो? ।

रमानाथ–बात यही है कि इस मुआमले में अब कोई शहादत न दूंगा। उससे मेरा ताल्लुक नहीं। आप लोगों ने मेरे साथ चाल चली और वारंट की धमकी देकर मुझे शहादत देने पर मजबूर