पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/१८५

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क्षुधा पीछे आती है। रतन को आत्म-प्रदर्शन के सभी साधन मिले हुए थे। उसकी युवती आत्मा अपने शृगांर और प्रदर्शन में मग्न थी। हंसी-विनोद, सैर-सपाटा, खाना-पीना, यही उसको जीवन था, जैसा प्रायः सभी मनुष्यों का होता है। इससे गहरे जल में जाने की न उसे इच्छा थी, न प्रयोजन। संपन्नता बहुत कुछ मानसिक व्यथाओं को शांत करती है। उसके पास अपने दुःखों को भुलाने के कितने ही ढंग हैं–सिनेमा है, थिएटर है, देश-भ्रमण है, ताश है, पालतू जानवर हैं, संगीत है, लेकिन विपन्नता को भुलाने का मनुष्य के पास कोई साधन नहीं, इसके सिवा कि वह रोए, अपने भाग्य को कोसे या भंसार से विरक्त होकर आत्म-हत्या कर ले। रतन की तकदीर ने पलटा खाया था। सुख का स्वप्न भंग हो गया था और विपन्नता का कंकाल अब उसे ख़ड़ा घूर रहा था।

और यह सब हुआ अपने ही हाथों पंडितजी उन प्राणियों में थे, जिन्हें मौत की फिक्र नहीं होती। उन्हें किसी तरह यह भ्रम हो गया था कि दुर्बल स्वास्थ्य के मनुष्य अगर पथ्य और विचार से रहें, तो बहुत दिनों तक जी सकते हैं। वह पथ्य और विचार की सीमा के बाहर कभी न जाते। फिर मौत को उनसे क्या दुश्मनी थी, जो ख्वामख्वाह उनके पीछे पड़ती। अपनी वसीयत लिख डालने का खयाल उन्हें उस वक्त आया, जब वह मरणासन्न हुए; लेकिन रतन वसीयत का नाम सुनते ही इतनी शोकातुर, इतनी भयभीत हुई कि पंडितजी ने उस वक्त टाल जाना ही उचित समझा। तब से फिर उन्हें इतना होश न आया कि वसीयत लिखवाते।

पंडितजी के देहावसान के बाद रतन का मन इतना विरक्त हो गया कि उसे किसी बात को भी सुध-बुध न रही। यह वह अवसर था, जब उसे निशेष रूप से सावधान रहना चाहिए था। इस भांति सतर्क रहना चाहिए थी, मानो दुश्मनों ने उसे घेर रक्खा हो; पर उसने सब कुछ मणिभूषण पर छोड़ दिया और उसी मणिभूषण ने धीरे-धीरे उसकी सारी संपत्ति अपहरण कर ली। ऐसे-ऐसे षड्यंत्र रचे कि सरला रतन को उसके कपट-व्यवहार का आभास तक न हुआ। फंदा जब खूब कस गया, तो उसने एक दिन आकर कहा--आज बंगला खाली करना होगा। मैंने इसे बेच दिया है।

रतन ने जरा तेज होकर कहा- मैंने तो तुमसे कहा था कि मैं अभी बंगला न बेचूंगी।

मणिभूषण ने विनय का आवरण उतार फेंका और त्योरी चढ़ाकर बोला-आपमें बातें भूल जाने की बुरी आदत है। इसी कमरे में मैंने आपसे यह जिक्र किया था और आपने हामी भरी थी। जब मैंने बेच दिया, तो आप यह स्वांग खड़ा करती हैं। बंगला आज खाली करना होगा और आपको मेरे साथ चलना होगा।

मैं अभी यहीं रहना चाहती हूं।'

'मैं आपको यहां न रहने दूंगा।'

'मैं तुम्हारी लौंड़ी नहीं हूं।'

'आपकी रक्षा का भार मेरे ऊपर है। अपने कुल की मर्यादा-रक्षा के लिए मैं आपको अपने साथ ले जाऊंगा।'

रतन ने होंठ चबाकर कहा-मैं अपनी मर्यादा की रक्षा आप कर सकती हूं। तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं। मेरी मर्जी के बगैर तुम यहां कोई चीज नहीं बेच सकते।