पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/१८६

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मणिभूषण ने वज्र-सा मारा-आपका इस घर पर और चाचाजी की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं। वह मेरी संपत्ति है। आप मुझसे केवल गुजारे का सवाल कर सकती हैं।

रतन ने विस्मित होकर कहा-तुम कुछ भंग तो नहीं खा गए हो?

मणिभूषण ने कठोर स्वर में कहा मैं इतनी भंग नहीं खाता कि बेसिर-पैर की बातें करने लगे। आप तो पढ़ी-लिखी हैं,एक बड़े वकील की धर्मपत्नी हैं। कानून की बहुत-सी बातें जानती होंगी। सम्मिलित परिवार में विधवा का अपने पुरुष की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता। चाचाजी और मेरे पिताजी में कभी अलगौझा नहीं हुआ। चाचाजी यहां थे,हम लोग इंदौर में थे,पर इससे यह नहीं सिद्ध होता कि हममें अलगौझा था। अगर चाचा अपनी संपत्ति आपको देना चाहते,तो कोई वसीयत अवश्य लिख जाते और यद्यपि वह वसीयत कानून के अनुसार कोई चीज न होती,पर हम उसका सम्मान करते। उनका कोई वसीयत न करता साबित कर रहा है कि वह कानून के साधारण व्यवहार में कोई बाधा न डालना चाहते थे। आज आपको बंगला खाली करना होगा। मोटर और अन्य वस्तुएं भी नीलाम कर दी जाएंगी। आपकी इच्छा हो, मेरे साथ चलें या रहें। यहां रहने के लिए आपको दस-ग्यारह रुपये का मकान काफी होगी गुजारे के लिए पचास रुपये महीने का प्रबंध मैंने कर दिया है। लेना-देना चुका लेने के बाद इससे ज्यादा की गुंजाइश ही नहीं।

रतन ने कोई जवाब न दिया। कुछ देर वह हतबुद्धि-सी बैठी रही, फिर मोटर मंगवाई और सारे दिन वकीलों के पास दौड़ती फिरी। पंडितजी के कितने ही वकील मित्र थे। सभी ने उसका वृत्तांत सुनकर खेद प्रकट किया और वकील साहब के वसीयत न लिख जाने पर हैरत करते रहे। अब उसके लिए एक ही उपाय था। वह यह सिद्ध करने की चेष्टा करे कि वकील साहब और उनके भाई में अलहदगी हो गई थी। अगर यह सिद्ध हो गया और सिद्ध हो जाना बिल्कुल आसान था, तो रतन उस संपत्ति की स्वामिनी हो जाएगी। अगर वह यह सिद्ध न कर सकी, तो उसके लिए कोई चारा न था।

अभागिनी रतन लौट आई। उसने निश्चय किया, जो कुछ मेरा नहीं है,उसे लेने के लिए मैं झूठ का आश्रय न लूंगी। किसी तरह नहीं। मगर ऐसा कानून बनाया किसने? क्या स्त्री इतनी नीच, इतनी तुच्छ,इतनी नगण्य है? क्यों?

दिन-भर रतन चिंता में डूबी, मौन बैठी रही। इतने दिनों वह अपने को इस घर की स्वामिनी समझती रही। कितनी बड़ी भूल थी। पति के जीवन में जो लोग उसका मुंह ताकते थे,वे आज उसके भाग्य के विधाता हो गए। यह घोर अपमान रतन-जैसी मानिनी स्त्री के लिए असह्य था। माना,कमाई पंडितजी की थी, पर यह गांव तो उसी ने खरीदा था,इनमें से कई मकान तो उसके सामने ही बने। उसने यह एक क्षण के लिए भी न खयाल किया था कि एक दिन यह जायदाद मेरी जीविका का आधार होगी। इतनी भविष्य-चिंता वह कर ही न सकती थी। उसे इस जायदाद के खरीदने में, उसके संवारने और सजाने में वही आनंद आता था,जो माता अपनी संतान को फलते-फूलते देखका पाती है। उसमें स्वार्थ का भाव न था,केवल अपनेपन का गर्व था,वही ममता थी,पर पति की आंखें बंद होते ही उसके पाले और गोद के खेलाए बालक भी उसकी गोद से छीन लिए गए। उसका उन पर कोई अधिकार नहीं। अगर वह