पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/१९३

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गबन:193
 


उठती। फिर उसी अंधकार और नीरवता का परदा पड़ जाता। उसके लिए भविष्य की मृदु स्मृतियां न थीं, केवल कठोर, नीरस वर्तमान विकराल रूप से खड़ा घूर रहा था।

वह जालपा, जो अपने घर बात-बात पर मान किया करती थी, अब सेवा, त्याग और सहिष्णुता की मूर्ति थी।जग्गो मना करती रहती, पर वह मुंह-अंधेरे सारे घर में झाडू लगा आती, चौका-बरतन कर डालती, आटा गंधकर रख देती, चूल्हा जला देती। तब बुढ़िया का काम केवल रोटियां सेंकना था। छूत-विचार को थी उसने ताक पर रख दिया था। बुढिया उसे ठेल-ठालकर रसोई में ले जाती और कुछ न कुछ खिला देती। दोनों में मां-बेटी का-सा प्रेम हो गया था।

मुकदमे की सब कार्रवाई समाप्त हो चुकी थी। दोनों पक्ष के वकीलों की बहस हो चुकी थी। केवल फैसला सुनाना बाकी था। आज उसकी तारीख थी। आज बड़े सबेरे घर के कामधंधों से फुरसत पाकर जालपा दैनिक-पत्र वाले की आवाज पर कान लगाए बैठी थी, मानो आज उसी का भाग्य-निर्णय होने वाला है। इतने में देवीदीन ने पत्र लाकर उसके सामने रख दिया। जालपा पत्र पर टूट पड़ी और फैसला पढ़ने लगी। फैसला क्या था, एक खयाली कहानी थी, जिसका प्रधान नायक रमा था। जज ने बार-बार उसकी प्रशंसा की थी। सारा अभियोग उसी के बयान पर अवलंबित था।

देवीदीन ने पूछा-फैसला छपा है?

जालपा ने पत्र पढ़ते हुए कहा-हां, है तो ।

'किसकी सजा हुई?'

'कोई नहीं छूटा। एक को फांसी की सजा मिली। पांच को दस-दस साल और आठ को पांच-पांच साल। उसी दिनेश को फांसी हुई।'

यह कहकर उसने समाचार-पत्र रख दिया और एक लंबी सांस लेकर बोली-इन बेचारों के बाल-बच्चों का न जाने क्या हाल होगा।

देवीदीन ने तत्परता से कहा-तुमने जिस दिन मुझसे कहा था, उसी दिन से मैं इन बातों का पता लगा रहा हूँ। आठ आदमियों को तो अभी तक ब्याह ही नहीं हुआ और उनके घर वाले मजे में हैं। किसी बात की तकलीफ नहीं है। पांच आदमियों का विवाह तो हो गया है, पर घर के खुश हैं। किसी के घर रोजगार होता है,कोई जमींदार है,किसी के बाप-चचा नौकर हैं। मैंने कई आदमियों से पूछा। यहां कुछ चंदा भी किया गया है। अगर उनके घर वाले लेना चाहें तो तो दिया जायेगा। खाली दिनेस तबाह है। दो छोटे-छोटे बच्चे हैं,बुढिया,मां और औरत। यहां किसी स्कूल में मास्टर था। एक मकान किराए पर लेकर रहता था। उसकी खराबी है।

जालपा ने पूछा-उसके घर का पता लगा सकते हो?

'हां, उसका पता कौन मुसकिल है?'

जालपा ने याचना-भाव से कहा-तो कब चलोगे? मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी। अभी तो वक्त है। चलो, जरा देखें।

देवीदीन ने आपत्ति करके कहा—पहले मैं देख तो आऊं। इस तरह उटक्करलैस मेरे साथ कहां-कहां दौड़ती फिरोगी?

जालपा ने मन को दबाकर लाचारी से सिर झुका लिया और कुछ न बोलो। देवीदीन चला गया। जालपा फिर समाचार-पत्र देखने लगी;पर उसका ध्यान दिनेश की