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196:प्रेमचंद रचनावली-5
 


खरीद ही तो लाए हों।

जग्गो ने भर्त्सना की-तुम्हें इतना बेलगाम न होना चाहिए था, बहू'दिल पर चोट लगती है, तो आदमी को कुछ नहीं सूझता।

जालपा ने निष्ठुरता से कहा-ऐसे हयादार नहीं हैं,दादी । इसी सुख के लिए तो आत्मा बेची। उनसे यह सुख भला क्या छोड़ा जायगी। पूछा नहीं, दादा से मिलकर क्या करोगे? वह होते तो ऐसी फटकार सुनाते कि छठी का दूध याद आ जाता।

जग्गों ने तिस्कार के भाव से कहा-तुम्हारी जगह मैं होती तो मेरे मुंह से ऐसी बातें न निकलतीं। तुम्हारा हिया बड़ी कठोर है। दूसरा मर्द होता तो इस तरह चुपका-चुपका सुनता? मैं तो थर-थर कांप रही थी कि कहीं तुम्हारे ऊपर हाथ ने चला दे; मगर है बड़ा गमखोर।

जालपा ने उसी निष्ठुरता से कहा-इसे गमखोरी नहीं कहते दादी, यह बेहयाई है।

देवीदीन ने आकर कहा-क्या यहां भैया आए थे? मुझे मोटर पर रास्ते में दिखाई दिए थे।

जग्गो ने कहा-हां, आए थे। कह गए हैं, दादा मुझसे जरा मिल लें। देवीदीन ने उदासीन होकर कहा-मिल लूंगा। यहां कोई बातचीत हुई?

जग्गो ने पछताते हुए कहा–बातचीत क्या हुई, पहले मैंने पूजा की, मैं चुप हुई तो बहू ने अच्छी तरह फूल-माला चढ़ाई।

जालपा ने सिर नीचा करके कहा-आदमी जैसा करेगा, वैसा भोगेगा।

जग्गो-अपना ही समझकर तो मिलने आए थे।

जालपा-कोई बुलाने तो न गया था। कुछ दिनेश का पता चला, दादा !

देवीदीन-हां, सब पूछ आया। हाबड़े में घर है। पता-ठिकाना सब मालूम हो गया।

जालपा ने डरते-डरते कहा-इस वक्त चलोगे या कल किसी वक्त?

देवीदीन-तुम्हारी जैसी मरजी। जी जाहे इसी बखत चलो, मैं तैयार हूं। जालपा-थक गए होगे? देवीदीन-इन कामों में थकान नहीं होती बेटी।

आठ बज गए थे। सड़क पर मोटरों का तांता बंधा हुआ था। सड़क की दोनों पटरियों पर हजारों स्त्री-पुरुष बने-उने, हंसते-बोलते चले जाते थे। जालपा ने सोचा, दुनिया कैसी अपने राग-रंग में मस्त है। जिसे उसके लिए मरना हो मरे, वह अपनी टेव ने छोड़ेगी। हर एक अपना छोटा-सा मिट्टी का घरौंदा बनाए बैठा है। देश बह जाए, उसे परवा नहीं। उसका घरौंदा बच रहे । उसके स्वार्थ में बाधा न पड़े। उसका भोली-भाली हृदय बाजार को बंद देखकर खुश होता। सभी आदमी शोक से सिर झुकाए, त्योरियां बदले उन्मत्त-से नजर आते। सभी के चेहरे भीतर की जलन से लाल होते। वह न जानती थी कि इस जन-सागर में ऐसी छोटी-छोटी ककड़ियों के गिरने से एक हल्कोरा भी नहीं उठता, आवाज तक नहीं आती।