पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/२२९

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< br>मोटर आई थीं न? कहां गया वह आदमी? उससे कह दो, थोड़ी देर के बाद लाए। जोहरा, आज मैं तुम्हें अपने बगीचे की सैर कराऊंगी। हम दोनों झूले पर बैठेंगी।

जोहरा फिर रोने लगी। जालपा भी आंसुओं के वेग को न रोक सकी। रतन एक क्षण तक छत की ओर देखती रही। फिर एकाएक जैसे उसकी स्मृति जाग उठी हो, वह लज्जित होकर एक उदास मुस्कराहट के साथ बोली- मैं सपना देख रही थी, दादा।

लोहित आकाश पर कालिमा का परदा पड़ गया था। उसी वक्ते रतन के जीवन पर मृत्यु ने परदा डाल दिया।

रमानाथ वैद्यजी को लेकर पहर रात को लौटे, तो यहां मौत का सन्नाटा छाया हुआ था। रतन की मृत्यु का शोक वह शोक न था, जिसमें आदमी हाय-हाय करता है, बल्कि वह शोक था जिसमें हम मूक रुदन करते हैं, जिसकी याद कभी नहीं भूलती, जिसका बोझ कभी दिल से नहीं उतरती।

रतन के बाद जोहरा अकेली हो गई। दोनों साथ सोती थीं, साथ बैठती थीं, साथ काम करती थीं। अकेले जोहरा का जो किसी काम में न लगता। कभी नदी-तट पर जाकर रहने को याद करती और रोती, कभी उस आम के पौधे के पास जाकर घंटों खड़ी रहती, जिसे उन दोनों ने लगाया था। मानो उसका सुहाग लुट गया हो। जालपा को बच्चे के पालन और भोजन बनाने से इतना अवकाश न मिलता था कि उसके साथ बहुत उठती-बैठती, और बैठती भी तो रतन की चर्चा होने लगती और दोनों रोने लगतीं।

भादों का महीना था। पृथ्वी और जल में रण छिड़ा हुआ था। जल की सेनाएं वायुयान पर चढ़कर आकाश से जल-शरों की वर्षा कर रही थीं। उसकी थल-सेनाओं ने पृथ्वी पर उत्पात मचा रखा था। गंगा गांवों और कस्बों को निगल रही थी। गांव के गांव बहते चले जाते थे। जोहरा नदी के तट पर बाढ़ का तमाशा देखने लगी। वह कृशांगी गंगा इतनी विशाल हो सकती है, इसका वह अनुमान भी न कर सकती थी। लहरें उन्मत्त होकर गनीं, मुंह से फेन निकालती, हाथों उछल रहीं थीं। चतर फेकैतों की तरह पैंतरे बदल रही थीं। कभी एक कदम आतीं, फिर पीछे लौट पड़ती और चक्कर खाकर फिर अगै को लपकतीं। कहीं कोई झोंपडा डगमगाता तेजी से बहा जा रहा था, मानो कोई शराबी दौड़ा जाता हो। कहीं कोई वृक्ष डाल-पत्तों समेत डूबता-उतराता किसी पाषाणयुग के जंतु की भाँति तैरता चला जाता था। गाएं और भैंसें, खाट और तख्ते मानो तिलस्मी चित्रों की भाँति आंखों के सामने से निकले जाते थे।

सहसा एक किश्ती नजर आई। उस पर कई स्त्री-पुरुष बैठे थे। बैठे क्या थे, चिमटे हुए थे। किश्ती कभी ऊपर जाती, कभी नीचे आती। बस यहीं मालूम होता था कि अब उलटी, अब उलटी, पर वाह रे साहस ! सब अब भी 'गंगा माता की जय !' पुकारते जाते थे। स्त्रियां अब भी गंगा के यश के गीत गाती थीं । जीवन और मृत्यु का ऐसा है; र्ष किसने देखा होगा। दोनों तरफ के आदमी किनारे पर, एक तनाव की दशा में हृदय को दबाए खड़े थे। जब किश्ती करवट लेतीं, तो लोगों के दिल उछल-उछलकर ओठों तक आ जाते। रस्सियां फेंकने की कोशिश की जाती, पर रस्सी बीच ही में गिर पड़ती थी। एकाएक एक बार किश्ती उलटे ही गई। सभी प्राणी लहरों में समा गए। एक क्षण कई स्त्री-पुरुष डूबते-उतराते दिखाई दिए, फिर निगाहों से