पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/२३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
236: प्रेमचंद रचनावली-5
 

एक लड़के ने कहा-आए तो थे, शायद बाहर चले गए हों।

"क्या फीस नहीं लाया है?"

किसी लड़के ने जवाब नहीं दिया।

अध्यापक की मुद्रा पर खेद की रेखा झलक पड़ी। अमरकान्त अच्छे लड़कों में था। बोले-शायद फीस लाने गया होगा। इस घंटे में न आया, तो दूनी फीस देनी पड़ेगी। मेरा क्या अख्तियार है? दूसरा लड़का चले-गोवर्धनदास |

सहसा एक लड़के ने पूछा- अगर आपकी इजाजत हो, तो मैं बाहर जाकर देखू?

अध्यापक ने मुस्कराकर कहा-घर की याद आई होगी। खैर, जाओ, मगर दस मिनट के अंदर आ जाना। लड़कों को बुला-बुलाकर फीस लेना मेरा काम नहीं है।

लड़के ने नम्रता से कहा-अभी आता हूं। कसम ले लीजिए, जो हाते के बाहर जाऊं।

यह इस कक्षा के संपन्न लड़कों में था, बड़ा खिलाड़ी, बड़ा बैठकबाजा। हाजिरी देकर गायब हो जाता, तो शाम की खबर लाता। हर महीने फीस की दूनी रकम जुर्माना दिया करता था। गोरे रंग का, लंबा, छरहरा शौकीन युवक था। जिसके प्राण खेल में बसते थे। नाम था मोहम्मद सलीम।

सलीम और अमरकान्त दोनों पास-पास बैठते थे। सलीम को हिसाब लगाने या तर्जुमा करने में अमरकान्त से विशेष सहायता मिलती थी। उसकी कापी से नकल कर लिया करता था। इससे दोनों में दोस्ती हो गई थी। सलीम कवि था। अमरकान्त उसकी गजलें बड़े चाव से सुनता था। मैत्री का यह एक और कारण था।

सलीम ने बाहर जाकर इधर-उधर निगाह दौड़ाई, अमरकान्त का कहीं पता न था। जरा और आगे बढ़े, तो देखा, वह एक वृक्ष की आड़ में खड़ा है। पुकारा --अमरकान्त । ओ बुद्ध लाल । चलो, फीस जमा कर। पंडितजी बिगड़ रहे हैं।

अमरकान्त ने अचकन दामन से आंखें पोंछ ली और सलीम की तरफ आता हुआ बोला-क्या मेरा नंबर आ गया।

सलीम ने उसके मुंह की तरफ देखा, तो उसकी आंखें लाल थीं। वह अपने जीवन में शायद ही कभी रोया हो । चौंककर बोला-अरे , तुम रो रहे हो क्या बात है।

अमरकान्त सांवले रंग का, छोटा-सा, दुबला-पतला कुमार था। अवस्था बीम की हो गई थी, पर अभी मसें भी न भीगी थीं। चौदह-पंद्रह साल का किशोर-सा लगता था। उसके मुख पर एक वेदनामय दृढ़ता, जो निराशा से बहुत कुछ मिलती-जुलती थी, ओंकत हो रही थी, मानो संसार में उसका कोई नहीं है। इसके साथ ही उसकी मुद्रा पर कुछ ऐसी प्रतिभा, कुछ ऐसी मनस्विता थी कि एक बार उसे देखकर फिर भूल जाना कठिन था।

उसने मुस्कराकर कहा-कुछ नहीं जी, रोता कौन है?

आप रोते हैं, और कौन रोता है। सच बताओ क्या हुआ?"

अमरकान्त की आंखें फिर भर आई। लाख यत्न करने पर भी आंसू न रुक सके। सलीम समझ गया। उसका हाथ पकड़कर बोला-क्या फीस के लिए रो रहे हो? भले आदमी, मुझसे क्यों न कह दिया? तुम मुझे भी गैर समझते हो। कसम खुदा की, बड़े नालायक आदमी हो तुम। ऐसे आदमी को गोली मार देनी चाहिए। दोस्तों से भी यह गैरियत । चलो क्लास में,