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कर्मभूमि:241
 

नैना को विश्वास न आया, बोलो-फीस नहीं, वह जमा कर दी। तुम्हारे पास रुपये कहां थे?

"नहीं नैना, सच कहता हूं, जमा कर दी।"

"रुपये कहां थे?"

"एक दोस्त से ले लिए।"

"तुमने मांगे कैसे?"

"उसने आप-ही-आप दे दिए, मुझे मांगने न पड़े।"

"कोई बड़ा सज्जन होगा।"

"हां, है तो सज्जन, नैना । जब फीस जमा होने लगी तो मैं मारे शर्म के बाहर चला गया। न जाने क्यों उस वक्त मुझे रोना आ गया। सोचता था, मैं ऐसा गया-बीता हूं कि मेरे पास चालीस रुपयें नहीं। वह मित्र जरा देर में मुझे बुलाने आया। मेरी आंखें लाल थीं। समझ गया। तुरंत जाकर फीस जमा कर दी। तुमने कहां पाए ये बीस रूपये?

"यह न बताऊंगी।"

नैना ने भाग जाना चाहा। बारह बरस की यह लज्जाशील बालिका एक साथ ही सरल भी थी और चतुर भी। उस ठगना सहज न था। उससे अपनी चिताओं को छिपाना कठिन था।

अमर ने लपककर उसका हाथ पकड़ लिया और बोला- जब तक बताआगों नहीं, मै जाने न दूंगा। किसी से कहूंगा नहीं, सच कहता हूँ।

नैना झंपती हुई बोली-दादा से लिए।

अमरकान्त ने बेदिली के साथ कहा- --तुमने उनसे नाहक मांगे, नैना । जब उन्होंने मुझे इतनी निर्दयता से दुत्कार दिया, तो मैं नहीं चाहता कि उनसे एक पैसा भी मांगू। मैंने तो समझा था, तुम्हारे पास कहीं पड़े होंगे, अगर मैं जानता कि तुम भी दादा से ही मांगोगी तो साफ कह देता. मुझे रुपये की जरूरत नहीं। दादा क्या बोले?

नैना सजल नेत्र होकर बोली- बोले तो नहीं। यही कहते रहे कि करनी-वरनी तो कुछ नहीं, रोज रुपये चाहिए, कभी फीस, कभी किताब, कभी चंदा। फिर मुनीमजी से कहा, बीस रुपये दे दो। बीस रुपये फिर देना।

अमर ने उत्तेजित होकर कहा-तुम रुपये लौटा देना, मुझे नहीं चाहिए।

नैना सिसक सिसककर रोने लगी। अमरकान्त ने रुपये जमीन पर फेंक दिए थे और वह सारी कोठरी में बिखरे पड़े थे। दोनों में से एक भी चुनने का नाम न लेता था। सहसा लाला समरकान्त आकर द्वार पर खड़े हो गए। नैना की सिसकियां बंद हो गई और अमरकान्त माना तलवार की चोट खाने के लिए अपने मन को तैयार करने लगा। लाला जी दोहरे बदन के दीर्घकाय मनुष्य थे। सिर से पांव तक सेठ–वही खल्वा मस्तक, वही फूले हुए कपोल, वही निकली हुई तोंद। मुख पर संयम का तेज था, जिसमे स्वार्थ की गहरी झलक मिली हुई थी। कठोर स्वर में बोले-चरखा चला रहा है। इतनी देर में कितना सूत काता? होगा हो -चार रुपये का?

अमरकान्त ने गर्व से कहा--चरखा रुपये के लिए नहीं चलाया जाता।