पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/२४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कर्मभूमि : 249
 

विमूढ़ होकर बोली-दीवाला क्या पिटन लगा?

"ऐसा संभव तो है।"

सुखदा ने मां की संपत्ति का आश्रय न लिया। वह न कह सकी, 'तुम्हारे पास जो कुछ है, वह भी तो मेरा ही है।' आत्म-सम्मान ने उसे न कहने दिया। मां के इस निर्दय प्रश्न पर झुंझलाकर बोली -'जब मौत आती है, तो आदमी मर जाता है। जान-बूझकर आग में नहीं कूदा जाता।

बातो- बातों में माता को ज्ञात हो गया कि उनकी सम्पत्ति का वारिस आने वाला है। कन्या के भविष्य के विषय में उन्हें बड़ी चिंता हो गई थी। इस संवाद न उस चिंता का शमन कर दिया।

उन्होने आनंद विह्वल होकर सुखदा को गले लगा लिया।

पांच

अमरकान्त ने अपन जीवन में माता के माता का सुख न जाना था। जब उसकी माता का अवसान हुआ, कि वह बहुत छोटा था। उस दूर अतीत का कुछ धुंधली सी और इसीलिए अत्यंत मनोहर और सुखद स्मृतियां शेष थी। उसका वेदनामय बाल-रूदन सुनकर जैसे उसकी माता न रेणुकादेवी के रूप में स्वर्ग से आकर उसे गोद में उठा लिया। बालक अपना रोना- धोना भूल गया और उस ममता- भरी गोद में मुंह छिपाकर दैवी-सुख लूटने लगा। अमरकान्त नही- नहीं करता रहता और माता उसे पकड़कर उसके आगे मेवे और मिठाइयां रख देती। उसे इंकार न करते बनता। वह देखता माता उसके लिए कभी कुछ पका रही हैं, कभी कुछ; और उसे खिलाकर कितनी प्रसन्न होता है तो उसके हृदय में श्रद्धा की एक लहर- सी उठने लगती है। वह कॉलेज से लौटकर सीधे रेणका के पास जाता। वहां उसके लिए जलपान रखे हुए रेणुका उसकी बाट जोहती रहती। प्रात: का नाश्ता भी वह वहीं करता। इस मातृ स्नेह में उसे तृप्ति ही न होती थी। छुट्टियों के दिन वह प्राय: दिन-भर रणुका ही के यहां रहता। उसके साथ कभी-कभी नैना भी चली जाती। वह खासकर पशु-पक्षियों की क्रीड़ा देखने जाती थी।

अमरकान्त के कोष में स्नेह आया, तो उसकी वह कृपणता जाती रही। सुखदा उसके समीप आने लगी। उसकी विलासिता से अब उसे उतना भय न रहा। रेणुका के साथ उसे लेकर वह सैर-तमाशे के लिए भी जाने लगा। रेणुका दसवें-पांचवें उसे दस-बीस रुपये जरूर दे देती। उसके सप्रेम आग्रह के सामने अमरकान्त की एक न चलती। उसके लिए नए- नए सूट बने, नए-नए जूते आए, मोटर साइकिल आयी, सजावट के सामान आते। पांच ही छ: महीने में वह विलासिता का द्रोही, वह सरल जीवन का उपासक, अच्छा-खास रईसजादा बन बैटा, रईसजादों के भावों और विचारों से भरा हुआ; उतना ही निर्द्वन्द्व और स्वार्थी। उसकी जेब में दस-बीस रुपये हमेशा पड़े रहते। खुद खाता, मित्रों को खिलाता और एक की जगह दो खर्च करता। वह अध्ययनशीलता जाती रही। ताश और चौसर में ज्यादा आनंद आता। हां,