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250:प्रेमचंद रचनावली-5
 


जलसों में उसे अब और अधिक उत्साह हो गया। वहां उसे कीर्ति-लाभ का अवसर मिलता था। बोलने की शक्ति उसमें पहले भी बुरी न थी। अभ्यास से और भी परिमार्जित हो गई। दैनिक समाचार और सामयिक साहित्य से भी उसे रुचि थी, विशेषकर इसलिए कि रेणुका रोज-रोज की खबरें उससे पढ़वाकर सुनती थीं।

दैनिक समाचार-पत्रों के पढ़ने से अमरकान्त के राजनैतिक ज्ञान का विकास होने लगा। देशवासियों के साथ शासक मंडल की कोई अनीति देखकर उसका खून खौल उठता था। जो संस्थाएं राष्ट्रीय उत्थान के लिए उद्योग कर रही थीं, उनसे उसे सहानुभूति हो गई। वह अपने नगर की कांग्रेस कमेटी का मेम्बर बन गया और उसके कार्यक्रम में भाग लेने लगा।

एक दिन कॉलेज के कुछ छात्र देहातों की आर्थिक-दशा को जांच-पड़ताल करने निकले। सलीम और अमर भी चले। अध्यापक डॉ. शान्तिकुमार उनके नेता बनाए गए। कई गांवों की पड़ताल करने के बाद मंडली संध्या समय लौटने लगी, तो अमर ने कहा-मैंने कभी अनुमान न किया था कि हमारे कृषकों को दशा इतनी निराशाजनक है।

सलीम बोला-तालाब के किनारे वह जो चार-पांच घर मल्लाहों के थे, उनमें तो लोहे के दो-एक बर्तन के सिवा कुछ था ही नहीं। मैं समझता था, देहातियों के पास अनाज की बखारें भरी होंगी; लेकिन यहां तो किसी घर में अनाज के मटके तक न थे।

शान्तिकुमार बोले--सभी किसान इतने गरीब नहीं होते। बड़े किसानों के घर में बखारें भी होती हैं। लेकिन ऐसे किसान गांव में दो-चार से ज्यादा नहीं होते।

अमरकान्त ने विरोध किया-मुझे तो इन गांवों में एक भी ऐसा किसान न मिला। और महाजन और अमले इन्हीं गरीबों को चूसते हैं । मैं चाहता हूं; उन लोगों को इन बेचारों पर दया भी नहीं आती।

शान्तिकुमार ने मुस्कराकर कहा- दया और धर्म की बहुत दिनों परीक्षा हुई और यह दोनों हल्के पड़े। अब तो न्याय-परीक्षा का युग है।

शान्तिकुमार की अवस्था कोई पैंतीस की थी। गोरे-चिट्ट, रूपवान आदमी थे। वेश- भूषा अंग्रेजी थी, और पहली नजर में अंग्रेज ही मालूम होते थे; क्योंकि उनकी आंखें नीली थीं, और बाल भी भूरे थे। आक्सफोर्ड से डॉक्टर की उपाधि प्राप्त कर लाए थे। विवाह के कट्टर विरोधी, स्वतंत्रता-प्रेम के कट्टर भक्त, बहुत ही प्रसन्न मुख, सह्रदय, सेवाशील व्यक्ति थे। मजाक का कोई अवसर पाकर न चूकते थे। छात्रों से मित्र भाव रखते थे। राजनैतिक आंदोलनों में खूब भाग लेते; पर गुप्त रूप से। खुले मैदान में न आते। हां, सामाजिक क्षेत्र खूब गरजते थे।

अमरकान्त ने करुण स्वर में कहा -मुझे तो उस आदमी की सूरत नहीं भूलती, जो छ: महीने से बीमार पड़ा था और एक पैसे की भी दवा न ली थी। इस दशा में जमींदार ने लगान की डिगरी करा ली और जो कुछ घर में था, नीलाम करा लिया। बैल तक बिकवा लिए। ऐसे अन्यायो संसार की नियंता कोई चेतन शक्ति है, मुझे तो इसमें संदेह हो रहा है। तुमने देखा नहीं सलीम, गरीब के बदन पर चिथड़े तक न थे। उसकी वृद्धा माता कितना फूट-फूटकर रोती थीं।