पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/२५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
252 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


चीज गई, वह गई। वह अपना दुख क्यों रोए? क्यों फरियाद करे? सारे संसार को सहानुभूति, उसके किस काम की है।

सलीम एक क्षण तक युवती की ओर ताकता रहा। फिर स्टिक संभालकर उन तीनों को पीटने लगा । ऐसा जान पड़ता था कि उन्मत्त हो गया है।

डॉक्टर साहब ने पुकारा-क्या करते हो सलीम । इससे क्या फायदा? यह इंसानियत के खिलाफ है कि गिरे हुओं पर हाथ उठाया जाय।

सलीम ने दम लेकर कहा-मैं एक शैतान को भी जिंदा न छोडूंगा। मुझे फांसी हो जाय, कोई गम नहीं। ऐसा सबक देना चाहिए कि फिर किसी बदमाश को इसकी जुर्रत न हो।

फिर मजूरों की तरफ देखकर बोला-तुम इतने आदमी खड़े ताकते रहे और तुमसे कुछ न हो सका। तुष्पमें इतनी गैरत भी नहीं? अपनी बहू-बेटियों की आबरू की हिफाजत भी नहीं कर सकते? समझते होंगे कौन हमारी बहू-बेटी हैं। इस देश में जितनी बेटियां हैं, जितनी बहुएं हैं, सब तुम्हारी बहुएं हैं, जितनी माएं हैं, सब तुम्हारी माएं हैं। तुम्हारी आंखों के सामने यह अनर्थ हुआ और तुम कायरों की तरह खड़े ताकते रहे ! क्यों सब-के-सब जाकर मर नहीं गए।

सहसा उसे खयाल आ गया कि मैं आवेश में आकर इन गरीबों को फटकार बनाने की अनधिकार चेष्टा कर रहा हूं। वह चुप हो गया और कुछ लज्जित भी हुआ।

समीप के एक गांव से बैलगाड़ी मंगाई गई। शान्तिकुमार को लोगों ने उटाकर उस पर लेटा दिया और गाड़ी चलने को हुई कि डॉक्टर साहब ने चौंककर पूछा -- और उन तीना आदमियों को क्या यहीं छोड़ जाओगे?

सलीम ने मस्तक सिकोड़कर कहा-हम उनको लादकर ले जाने के जिम्मेदार नहीं हैं। मेरा तो जी चाहता है, उन्हें खोदकर दफन कर दूं।

आखिर डॉक्टर के बहुत समझाने के बाद सलीम राजी हुआ। तीनो गोरे भी गाड़ी पर लादे गए और गाड़ी चली। सब-के-सब मजूर अपराधियों की भांति सिर झुकाए कुछ दूर तक गाड़ी के पीछे-पीछे चले। डॉक्टर ने उनको बहुत धन्यवाद देकर विदा किया। नौ बजते- बजते समीप का रेलवे स्टेशन मिला। इन लोगों ने गोरों को तो वहीं पुलिस के चार्ज में छोड़ दिया और आप डॉक्टर साहब के साथ गाड़ी पर बैठकर घर चले।

सलीम और अमर तो जरा देर में हंसने-बोलने लगे। इस संग्राम की चर्चा करते उनकी जबान न थकती थी। स्टेशन मास्टर से कहा, गाड़ी में मुसाफिरों से कहा, रास्ते में जो मिला उससे कहा। सलीम तो अपने साहम और शौर्य की खूब डींगें मारता था, मानो कोई किला जीत आया है और जनता को चाहिए कि उसे मुकुट पहनाए, उसकी गाड़ी खींचे, उसका जुलूस निकाले, किंतु अमरकान्त चुपचाप डॉक्टर साहब के पास बैठा हुआ था। आज उसके हृदय पर ऐसी चोट लगाई थी, जो कभी न भरेगी। वह मन-ही-मन इस घटना की व्याख्या कर रहा था। इन टके के सैनिकों की इतनी हिम्मत क्यों हुई? यह गोरे सिपाही इंगलैंड के निम्नतम श्रेणी के मनुष्य होते हैं। इनका इतना साहस कैसे हुआ? इसीलिए कि भारत पराधीन है। यह लोग जानते हैं कि यहां के लोगों पर उनका आतंक छाया हुआ है। वह जो अनर्थ चाहें, करें। कोई चूं नहीं कर सकता। यह आतंक दूर करना होगा। इस पराधीनता की जंजीर को तोड़ना होगा।