पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/२५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
258 :प्रेमचंद रचनावली-5
 


स्थान पर पहुंच गई थी, जहां से उसका आकार मात्र दिखाई देता था, मानो दो-एक क्षण में वह अदृश्य हो जाएगी।

अमरकान्त के जी में पहले तो आया कि कह दे, लाला नहीं हैं, वह आएं तब आना; लेकिन बुढ़िया के पिचके हुए मुख पर ऐसी करुण याचना, ऐसी शून्य निराशा छाई हुई थी कि उसे उस पर दया आ गई। बोला-लालाजी से क्या काम है? वह तो कहीं गए हुए हैं।

बुढ़िया ने निराश होकर कहा--तो कोई हरज नहीं बेटा, मैं फिर आ जाऊंगी।

अमरकान्त ने नम्रता से कहा- अब आते ही होंगे, माता। ऊपर चली जाओ

दूकान की कुरसी ऊंची थी। तीन सीढ़ियां चढ़नी पड़ती थीं। बुढ़िया ने पहली पट्टी पर पांव रखा, पर दूसरा पांव ऊपर न उठा सकी। पैरों में इतनी शक्ति न थी। अमर ने नीचे आकर उसका हाथ पकड़ लिया और उसे सहारा देकर दूकान पर चढ़ा दिया। बुढ़िया ने आशीर्वाद देते हुए कहा-तुम्हारी बड़ी उम्र हो बेटा, मैं यही डरती हूं कि लाला देर में आएं और अंधेरा हो गया, तो मैं घर कैसे पहुंचूंगी? रात को कुछ नहीं सूझता बेटा ।

"तुम्हारा घर कहां है; माता ?"

बुढ़िया ने ज्योतिहीन आंखों से उसके मुख की ओर देखकर कहा-- गोवर्धन की सराय पर रहती हूं, बेटा ।

"तुम्हारे और कोई नहीं है?'

"सब हैं भैया, बेटे हैं, पोते हैं, बहुएं हैं, पोतों की बहुएं हैं, पर जब अपना कोई नहीं, तो किस काम का? नहीं लेते मेरी सुध, न सही। हैं तो अपने। मर जाऊंगी, तो मिट्टी तो ठिकाने लगा देंगा"

"तो वह लोग तुम्हें कुछ देते नहीं?'

बुढ़िया ने स्नेह मिले हुए गर्व से कहा-मैं किसी के आसरे-भरोसे नहीं हूं बेटा, जीते रहें मेरा लाला समरकान्त, वह मेरी परवरिश करते हैं। तब तो तुम बहुत छोटे थे भैया, जब मेरा सरदार लाला का चपरासी था। इसी कमाई में खुदा ने कुछ ऐसी बरक्कत दी कि घर- द्वार बना, बाल-बच्चों का ब्याह-गौना हुआ, चार पैसे हाथ में हुए। थे तो पांच रुपये के प्यादे, पर कभी किसी से दबे नहीं, किसी के सामने गर्दन नहीं झुकाई। जहां लाला का पसीना गिरे, वहां अपना खून बहाने को तेयार रहते थे। आधी रात, पिछली रात, जब बुलाया, हाजिर हो गए। थे तो अदना-से नौकर, मुदा लाला ने कभी 'तुम' कहकर नहीं पुकारा। बराबर खां साहब कहते थे। बड़े-बड़े सेठिए कहते---खां साहब, हम इससे दूनी तलब देंगे, हमारे पास आ जाओ, पर सबको यही जवाब देते कि जिसके हो गए उसके हो गए। जब तक वह दुत्कार न देगा, उसका दामन न छोड़ेंगे। लाला ने भी ऐसा निभाया कि क्या कोई निभाएगा? उन्हें मरे आज बीसवां साल है, वही तलब मुझे देते जाते हैं। लड़के पगए हो गए, पोते बात नहीं पूछते, पर अल्लाह मेरे लाला को सलामत रखें, मुझे किसी के सामने हाथ फैलाने की नौबत नहीं आई।

अमरकान्त ने अपने पिता को स्वार्थी, लोभी, भावहीन समझ रखा था। आज उसे मालूम हुआ, उनमें दया और वात्सल्य भी है। गर्व से उसका हृदय पुलकित हो उठा। बोला-तो तुम्हें पांच रुपये मिलते हैं?