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260 : प्रेमचंद रचनावली-5
 

बुढ़िया ने कोने में अपनी लकड़ी रख दी और बोली-लाला का लड़का है, मुझे पहुंचाने आया है। ऐसा नेक-शरीफ लड़का तो मैंने देखा ही नहीं।

उसने अब तक का सारा वृत्तांत अपने आशीर्वादों से भरी भाषा में कह सुनाया और बोली -आंगन में खाट डाल दे बेटी, जरा बुला लूं। थक गया होगा।

सकीना ने एक टूटी-सी खाट आंगन में डाल दी और उस पर एक सड़ी-सी चादर बिछाती हुई बोली-इस खटोले पर क्या बिठाओगो अम्मां, मुझे तो शर्म आती है?

बुढ़िया ने जरा कड़ी आंखों से देखकर कहा---शर्म की क्या बात है इसमें? हमारा हाल क्या इनसे छिपा है?

उसने बाहर जाकर अमरकान्त को बुलाया। द्वार एक परदे की दीवार में था। उस पर एक टाट का फटा-पुराना परदा पड़ा हुआ था। द्वार के अंदर कदम रखते ही एक आंगन था, जिसमें मुश्किल से दो खटोले पड़ सकते थे। सामने खपरैल का एक नीचा सायबान था और सायबान के पीछ एक कोठरी थी, जो इस वक्त अंधेरी पड़ी हुई थी। सायबान में एक किनारं चूल्हा बना हुआ था और टीन और मिट्टी के दो- चार बर्तन, एक घड़ा और एक मटका रखें हुए थे। चूल्हे में आग जल रही थी और तवा रखा हुआ था।

अमर ने खाट पर बैठते हुए कहा -- यह घर तो बहुत छोटा है। इसमें गुजर कैसे होती है?

बुढ़िया खाट के पास जमीन पर बैठ गई और बोली -- बेटा, अब तो दो ही आदमी हैं, नहीं, इसी घर में एक पूरा कुनबा रहता था। मेरे दो बेटे, दो बहुए, उनके बच्चे, सब इसी घर में रहते थे। इसी में सबों के शादी-ब्याह हुए और इसी में सब मर भी गए। उस वक्त यह ऐसा गुलजार लगता था कि तुमसे क्या कहूं? अब मैं हूं और मेरी यह पोती है। और सबको अल्लाह ने बुला लिया। पकाते हैं और पड़े रहते हैं। तुम्हारे पठान के मरते ही घर में जैसे झाडू फिर गई। अब तो अल्लाह से यही दुआ है कि मेरे जीते-जी यह किसी भन्ने आदमी के पाले पड़ जाए, तब अल्लाह से कहूंगी कि अब मुझे उठा लो। तुम्हारे यार- दोस्त तो बहुत होगे बेटा, अगर शर्म की बात न समझो, तो किसी से जिक्र करना। कौन जाने तम्हार ही हीले से कहीं बातचीत ठीक हो जाए।

सकीना कुरता-पाजामा पहने, ओढ़नी स माथा छिपाए सायबान में खड़ी थी। बुढ़िया नं ज्योंही उसकी शादी की चर्चा छेड़ी, वह चूल्हे के पास जा बैठी और आटे को अंगुलियों से गोदने लगी। वह दिल में झुझला रही थी कि अम्मां क्यों इनसें मेरा दुखड़ा ले बैठी? किससे कौन बात कहनी चाहिए, कौन बात नहीं, इसका इन्हें जरा भी लिहाज नहीं? जो ऐरा-गैरा आ गया, उसी से शादी का पचड़ा गाने लगी। और सब बातें गई, बस एक शादी रह गई।

उसे क्या मालूम कि अपनी संतान को विवाहित देखना बुढ़ापे की सबसे बड़ी अभिलाषा है।

अमरकान्त ने मन में मुसलमान मित्रों का सिंहावलोकन करते हुए कहा--मेरे मुसलमान दोस्त ज्यादा तो नहीं हैं, लेकिन जो दो-एक हैं, उनसे मैं जिक्र करूंगा।

वृद्धा ने चिंतित भाव से कहा-वह लोग धनी होंगे?

"हां, सभी खुशहाल हैं।"