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कर्मभूमि : 261
 

"तो भला धनी लोग गरीबों की बात क्यों पूछेगे? हालाकि हमारे नबी का हुक्म है कि शादी-ब्याह में अमीर-गरीब का विचार न होना चाहिए, पर उनके हुक्म को कौन मानता है । नाम के मुसलमान, नाम के हिन्दु रह गए हैं। न कहीं सच्चा मुसलमान नजर आता है, न सच्चा हिन्दू। मेरे घर का तो तुम पानी भी न पियोगे बेटा, तुम्हारी क्या खातिर करूं। (सकीना से) बेटी, तुमने जो रूमाल काढ़ा है वह लाकर भैया को दिखाओ। शायद इन्हें पसंद आ जाए। और हमें अल्लाह ने किस लायक बनाया है?

सकीना रसोई से निकली और एक ताक पर से सिगरेट का एक बड़ा सा बक्स उठा लाई और उसमें से वह रूमाल निकालकर सिर झुकाए, झिझकती हुई, बुढ़िया के पास आ, रूमाल रख, तेजी से चली गई।

अमरकान्त आंखें झुकाए हुए था, पर सकीना को सामने देखकर आंखें नीची न रह सकी। एक रमणी सामने खड़ी हो, तो उसकी ओर से मुंह फेर लेना कितनी भद्दी बात है। सकीना का रंग सांवला था और रूप-रेखा देखते हुए वह सुदरी न कही जा सकती थी, अंग प्रत्यंग का गठन भी कवि वर्णित उपमाओं से मेल न खाता था; पर रंग-रूप, चाल- ढाल, शील संकोच, इन सबने मिल-जुलकर उसे आकर्षक शोभा प्रदान कर दी थी। वह बड़ी- बड़ी पलकों से आंखें छिपाए, देह चुराए, शोभा की सुगंध और ज्योति फैलाती हुई इस तरह निकल गई, जैस स्वप्न नित्र एक झलक दिखाकर मिट गया हो।

अमरकान्त ने रूमाल उठा लिया और दीपक के प्रकाश में उसे देखने लगा। कितनी सफाई से बेल-बूटे बनाए गए थे। बीच में एक मार का चित्र था। इस झोंपड़े में इतनी सुरूचि?

चकित होकर बोला- यह तो खूबसूरत रूमाल है, माताजी । सकीना काढ़ने के काम में बहुत होशियार मालूम होती है।

बुढ़िया ने गर्व से कहा--यह सभी काम जानती है भैया, न जाने कैसे सीख लिया? मुहल्ले की दो-चार लड़कियां मदरसे पढ़ने जाती हैं। उन्हीं को काढ़ते देखकर इसने सब कुछ सीख लिया। कोई मर्द घर में होता, तो हमें कुछ काम मिल जाया करता। गरीबों के मुहल्ले में इन कामों की कौन कदर कर सकता है? तुम यह रूमाल लेते जाओ बेटा, एक बेकस की नजर है।

अमर ने रूमाल को जेब में रखा तो उसकी आंखें भर आई। उसका बस होता तो इसी वक्त सौ-दो सौ रूमालों की फरमाइश कर देता। फिर भी यह बात उसके दिल में जम गई। उसने खड़े होकर कहा--मैं इस रूमाल को हमेशा तुम्हारी दुआ समझूगा। वादा तो नहीं करता लेकिन मुझे यकीन है कि मैं अपने दोस्तों से आपको कुछ काम दिला सकूंगा।

अमरकान्त ने पहले पठानिन के लिए 'तुम' का प्रयोग किया था। चलते समय तक वह तुम आप में बदल गया था। सुरुचि, सुविचार, सद्भाव उसे यहां सब कुछ मिला। हां, उस पर विपन्नता का आवरण पड़ा हुआ था। शायद सकीना ने यह 'आप' और 'तुम' का विवेक उत्पन्न कर दिया था।

अमर उठ खड़ा हुआ। बुढ़िया आंचल फैलाकर उसे दुआएं देती रही।