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262 :प्रेमचंद रचनावली-5
 

आठ

अमरकान्त नौ बजते-बजते लौटा तो लाला समरकान्त ने पूछा-तुम दूकान बंद करके कहां चले गए थे? इसी तरह दूकान पर बैठा जाता है?

अमर ने सफाई दी-बुढ़िया पठानिन रुपये लेने आई थी। बहुत अंधेरा हो गया था। मैंने समझा कहीं गिर-गिरा पड़े इसलिए उसे घर तक पहुंचाने चला गया था। वह तो रुपये लेती ही न थी; पर जब बहुत देर हो गई तो मैंने रोकना उचित न समझा।

"कितने रुपये दिए?"

"पांच।"

लालाजी को कुछ धैर्य हुआ।

"और कोई अंसामी आया था? किसी से कुछ रुपये वसूल हुए?"

"जी नहीं।"

"आश्चर्य है।"

"और तो कोई नहीं आया, हां, वही बदमाश काले खां सोने की एक चोज बेचने लाया था। मैंने लौटा दिया।"

समरकान्त की त्योरियां बदली-क्या चीज थी?

"सोने के कड़े थे। दस तोले बताता था।"

"तुमने तौला नहीं?"

"मैंने हाथ से छुआ तक नहीं।"

"हां, क्यों छूते, उसमें पाप लिपटा हुआ था न ! कितना मांगता था?"

"दो सौ।'

"झूठ बोलते हो।

"शुरू दो सौ से किए थे, पर उतरते-उतरते तीस रुपये तक आया था।"

लालाजी की मुद्रा कठोर हो गई-फिर भी तुमने लौटा दिए?

"और क्या करता? मैं तो उसे सेंत में भी न लेता। ऐसा रोजगार करना मैं पाप समझता हूं"

समरकान्त क्रोध से विकृत होकर बोले-चुप रहो, शरमाते तो नहीं, ऊपर से बातें बनाते हो। डेढ़ सौ रुपये बैठे-बैठाए मिलते थे, वह तुमने धर्म के घमंड में खो दिए, उस पर से अकड़ते हो। जानते भी हो, धर्म है क्या चीज? साल में एक बार भी गंगा स्नान करते हो? एक बार भी देवताओं को जल चढ़ाते हा? कभी राम का नाम लिया है जिंदगी में? कभी एकादशी या कोई दूसरा व्रत रखा है? कभी कथा-पुराण पढ़ते या सुनते हो? तुम क्या जानो धर्म किसे कहते हैं? धर्म और चीज है, रोजगार और चीज। छि: साफ डेढ़ सौ फेंक दिए।

अमरकान्त धर्म की इस व्याख्या पर मन-ही-मन हंसकर बोला-आप गंगा-स्नान, पूजा-पाठ को मुख्य धर्म समझते हैं; मैं सच्चाई, सेवा और परोपकार को मुख्य धर्म समझता हूं। स्नान-ध्यान, पूजा-व्रत धर्म के साधन मात्र हैं, धर्म नहीं।

समरकान्त ने मुंह चिढ़ाकर कहा-ठीक कहते हो, बहुत ठीक; अब संसार तुम्हीं को