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कर्मभूमि : 263
 


धर्म का आचार्य मानेगा। अगर तुम्हारे धर्म-मार्ग पर चलता, तो आज मैं भी लंगोटी लगाए घूमता होता, तुम भी यो महल में बैठकर मौज न करते होते। चार अक्षर अंग्रेजी पढ़ ली न, यह उसी की विभूति है; लेकिन मैं ऐसे लोगों को भी जानता हूं, जो अंग्रेजी के विद्वान् होकर अपना धर्म-कर्म निभाए जाते हैं। साफ डेढ़ सौ पानी में डाल दिए।

अमरकान्त ने अधीर होकर कहा-आप बार-बार उसकी चर्चा क्यों करते हैं? मैं चोरी और डाके के माल का रोजगार न करूंगा, चाहे आप खुश हों या नाराज। मुझे ऐसे रोजगार से घृणा होती है।

"तो मेरे काम में वैसी आत्मा की जरूरत नहीं। मैं ऐसी आत्मा चाहता हूं, जो अवसर देखकर, हानि-लाभ का विचार करके काम करे।"

"धर्म को मैं हानि-लाभ की तराजू पर नहीं तौल सकता।"

इस वज्र-मुर्खता की दवा, चांटे के सिवा और कुछ न थी। लालाजी खून का चूंट पीकर रह गए। अमर हृष्ट-पुष्ट न होता. तो आज उस धर्म की निंदा करने का मजा मिल जाता। बोल--- बस, तुम्हीं तो संसार में एक धर्म के ठेकदार रह गए हो, और सब तो अधर्मी हैं। वहीं माल जो तुमने अपने घमंड में लौटा दिया, तुम्हार किसी दूसरे भाई ने दो-चार रुपये कम- बेश देकर ले लिया होगा। उसने तो रुपये कमाए, तुम नींबू-नोन चाटकर रह गए। डेढ़-सौ रुपये तब मिलते हैं, जब डढ़ सौ थान कपड़ा या डेढ़ सौ बार चीनी बिक जाय। मुंह का कौर नहीं हैं। अभी कमाना नहीं पड़ा है, दूसरों को कमाई सं चैन उड़ा रहे हो तभी ऐसी बातें सूझती हैं। जब अपने सिर पड़ेगी, तब आंखें खुलेंगी।

अमर अब भी कायल न हुआ। बोला -मैं कभी यह रोजगार न करूंगा।

लालाजी को लड़के की मूर्खता पर क्रोध की जगह क्रोध मिश्रित दया आ गई। बोले- तो फिर कौन रोजगार करोगे? कौन रोजगार है, जिसमें तुम्हारी आत्मा की हत्या न हो, लेन-देन, सूद- बट्टा, अनाज- कपड़ा, तेल घी, सभी रोजगारों में दांव-घात है। जो दांव - घात समझता है, वह नफा उठाता है, जो नहीं समझता, उसका दिवाला पिट जाता है। मुझे कोई ऐसा रोजगार बता दो, जिसमे झूठ न बोलना पड़े, बेईमानी न करनी पड़े। इतने बड़े- बड़े हाकिम हैं, बताओ कौन घूस नहीं लेता? एक सीधी-सी नकल लेने जाओ. तो एक रुपया लग जाता है। बिना तहरीर लिए थानेदार रपट तक नहीं लिखता। कौन वकील है, जो झूठे गवाह नहीं बनाता? लीडरों ही में कौन है, जो चंदे के रुपये में नोच-खसोट न करता हो? माया पर तो संसार की रचना हुई है, इससे कोई कैसे बच सकता है?

अमर ने उदासीन भाव से सिर हिलाकर कहा-अगर रोजगार का यह हाल है, तो मैं रोजगार करूंगा ही नहीं।

"तो घर-गिरस्ती कैसे चलेगी? कुएं में पानी की आमद न हो, तो कै दिन पानी निकले?"

अमरकान्त ने इस विवाद का अंत करने के इरादे से कहा--मैं भूखों मर जाऊंगा, पर आत्मा का गला न घोंटूंगा।

"तो क्या मजूरी करोगे?"

"मजूरी करने में कोई शर्म नहीं है।"