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264 : प्रेमचंद रचनावली--5
 

समरकान्त ने हथौड़े से काम चलते न देखकर घन चलाया-शर्म चाहे न हो; पर तुम कर न सकोगे, कहो लिख दूं? मुंह से बक देना सरल है, कर दिखाना कठिन होता है। चोटी का पसीना एड़ी तक आता है, तब चार गंडे पैसे मिलते हैं। मजूरी करेंगे । एक घड़ा पानी तो अपने हाथों खींचा नहीं जाता, चार पैसे की भाजी लेनी होती है, तो नौकर लेकर चलते हैं, यह मजूरी करेंगे। अपने भाग्य को सराहो कि मैंने कमाकर रख दिया है। तुम्हारा किया कुछ न होगा। तुम्हारी इन बातों से ऐसा जी जलता है कि सारी जायदाद कृष्णार्पण कर दूं फिर देखू तुम्हारी आत्मा किधर जाती है?

अमरकान्त पर उनकी इस चोट का भी कोई असर न हुआ–आप खुशी से अपनी जायदाद कृष्णार्पण कर दें। मेरे लिए रत्ती भर भी चिंता न करें। जिस दिन आप यह पुनीत कार्य करेगे, उस दिन मेरा सौभाग्य-सूर्य उदय होगा। मैं इस मोह से मुक्त होकर स्वाधीन हो जाऊंगा। जब तक मैं इस बंधन में पड़ा रहूंगा, मेरी आत्मा का विकास होगा।

समरकान्त के पास अब कोई शस्त्र न था। एक क्षण के लिए क्रोध ने उनकी व्यवहार - बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया। बोले-तो क्यों इस बंधन में पड़े हो? क्यों अपनी आत्मा का विकास नहीं करते? महात्मा ही हो जाओ। कुछ करके दिखाओ तो ! जिस चीज को तुम कदर नहीं कर सकते, वह मैं तुम्हारे गले नहीं मढ़ना चाहता।

यह कहते हुए वह ठाकुरद्वारे में चले गए, जहां इस समय आरती का घंटा बज रहा था। अमर इस चुनौती का जवाब न दे सका। वे शब्द जो बाहर न निकल सके, उसके हृदय में फोड़े की तरह टीसने लगे---मुझ पर अपनी संपत्ति की धौंस जमाने चले हैं। चोरी का माल बेचकर, जुआरियों को चार आने रुपये ब्याज पर रुपये देकर. गरीब मजूर और किसानों की ठगकर तो रुपये जोड़े हैं, उस पर आपको इतना अभिमान है । ईश्वर न करें कि मैं उस धन का गुलाम बनूं।

वह इन्हीं उत्तेजना में भर हुए विचारों में डूबा बैठा था कि नैना ने आकर कहा- दादा बिगड़ रहे थे, भैयाजी।

अमरकान्त के एकांत जीवन में नैना ही स्नेह और सांत्वना की वस्तु थी। अपना सुख- दुख अपनी विजय और पराजय, अपने मंसूबे और इरादे वह उसी से कहा करता था। यद्यपि सुखदा से अब उसे उतना विराग न था, अब उसस प्रेम भी हो गया था, पर नैना अब भी उसमें निकटतर थी। सुखदा और नैना दोनों उसके अंतस्थल के दो कृल थे। सुखदा ऊंची, दुर्गम और विशाल थी। लहरें उसके चरणों ही तक पहुंचकर रह जाती थीं। नैना समतल, सुलभ और समीप। वायु का थोड़ा वेग पाकर भी लहरें उसके मर्मस्थल तक पहुंचती थीं।

अमर अपनी मनोव्यथा मंद मुस्कान की आड़ में छिपाता हुआ बोला-कोई नई बात नहीं थी नैना। वही पुराना पचड़ा था। तुम्हारी भाभी तो नीचे नहीं थीं?

"अभी तक तो यहीं थीं। जरा देर हुई ऊपर चली गईं।"

"तो आज उधर से भी शस्त्र प्रहार होंगे। दादा ने तो आज मुझसे साफ कह दिया, तुम अपने लिए कोई राह निकालो, और मैं भी सोचता हूं, मुझे अब कुछ-न-कुछ करना चाहिए। यह रोज-रोज की फटकार नहीं सही जाती। मैं कोई बुराई करूं, तो वह मुझे दस जूते भी जमा दें, चूं न करूंगा, लेकिन अधर्म पर मुझसे न चला जाएगा।"